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________________ ४६४ पञ्चसंग्रह तानि कानीति चेदाह--[ 'गिरए तीसुगुतीसं' इत्यादि । ] नरकगतौ एकान्नत्रिंशत्क-त्रिंशत्के द्वे बन्धस्थाने भवतः २२॥३०। एक-पञ्च-सप्ताष्ट-नवानविंशतिकानि पञ्च नाम्नः प्रकृत्युदयस्थानानि २१॥२५॥ २८/२६ ज्ञातव्यानि । पुनः नरकावासे नरकगतौ नामसत्त्वस्थानानि त्रीणि-द्वानवतिककनवतिक-नवतिकानि नवस्यन्तिकानि सदा भवन्ति १२॥ १० ॥४११-४२०॥ नरकगतिमें उनतीस और तीस प्रकृतिक दो बन्धस्थान जानना चाहिए। इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक पाँच उदयस्थान होते हैं । तथा नरकावासमें बानबैको आदि लेकर नब्बै तकके तीन सत्त्वस्थान सदा होते हैं ॥४१६-४२०॥ नरकगतिमें बन्धस्थान २६, ३० प्रकृतिक दो; उदयस्थान २१, २५, २७, २८, २६, प्रकृतिक पाँच और सत्त्वस्थान ६२, ६१, ६० प्रकृतिक तीन होते हैं। अब तिर्यग्गति-सम्बन्धी बन्धादि-स्थानोंका निरूपण करते हैं 'तिरियगई तेवीसं पणुवीस छव्वीसमट्ठवीसा य । तीसूण तीस बंधा उवरिम दो वज्ज णव उदया ॥४२१॥ वाणउदि णउदिमडसीदिमेव संताणि चदु दु सीदी य । तिरिएसु जाण संता मणुएसुवि सव्वबंधा तो ॥४२२॥ तिरियगईए बंधा २३।२५।२६।२८।२९।३०। उदया २११२४२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१॥ -तित्थयरसंतकस्मिओ तिरिएसु ण उप्पजइ त्ति तेण तेणउदि एक्काणउदि विणा संता 821801८८1८४८२ तिर्यग्गत्यां त्रयोविंशतिक-पञ्चविंशतिक-पविंशतिकाष्टाविंशतिक नवविंशतिक-त्रिंशत्कानि नाम्नो बन्धस्थानानि षट् २३।२५।२६।२८।२६।३० भवन्ति । तिर्यग्गतौ उपरिमनवकाष्टकद्वयं वर्जयित्वा एकविंशतिकादीनि नव नाम्न उदयस्थानानि २११२४२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ भवन्ति । तिर्यग्गतौ द्वानवतिक-नवतिकाष्टाशीतिक-चतुरशीतिक-द्वयशीतिकानि सवस्थानानि पञ्च ९२११०1८11८४८२ । तीर्थकरत्वसत्कर्मा तियक्ष नोत्पद्यते इति । तेन त्रिनवतिकमेकनवतिकं च तिर्यग्गतौ न भवतीति सत्वं जानीहि । मनुष्यगतौ तानि सर्वाण्यष्टौ बन्धस्थानानि ॥४२१-५२२॥ तिर्यग्गतिमें तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस उनतीस और तीस प्रकृतिक छह बन्धस्थान होते हैं। उदयस्थान उपरिम दोको छोड़कर शेष नौ होते हैं। तथा सत्त्वस्थान बानबै, नब्बै अठासी और बियासी प्रकृतिक पाँच होते हैं। ऐसा जानना चाहिए । मनुष्यगतिमें पूर्व में बतलाये हुए सब बन्धस्थान होते हैं ॥४२१-४२२॥ तिर्यग्गतिमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २६, ३० प्रकृतिक छह होते हैं। उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक नौ होते हैं। तीर्थङ्करप्रकृतिकी सत्तावाला जीव तिर्यश्चों में उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए तेरानबै और इक्यानबके विना सत्त्वस्थान ६२, ६०, . ८८,८४, ८२ प्रकृतिक पाँच होते हैं । अब मनुष्यगति-सम्बन्धी बन्धादि-स्थानोंका निरूपण करते हैं *चउवीसं वज्जुदया रव्याइं हवंति संतठाणाणि । वासीदं वजित्ता एत्तो देवेसु वोच्छामि ॥४२३॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४३३ । 2. ५, 'तिर्यक्षु बन्धे' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २१८)। 3. ५, ४३४ । +ब ते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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