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________________ सप्ततिका अब मूलसप्ततिकाकार नामकके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थान इन तीनोंको एकत्र मिलाकर बतलाते हैं[मूलगा०२४] अट्ठगारस तेरस बंधोदयसंतपयडिठाणाणि । ओघेणादेसेण य एत्तो जिह संभवं विसजे ॥२२०॥ अथोक्तनामत्रिसंयोगस्यकाधिकरणे द्वयाधेयं ब्रुवन् तावद् बन्धाधारे उदय-सत्वाधेयं गाथाकतिभिराह । आदौ बन्धादित्रिक गाथाचतुष्कणाऽऽह-['अठेगारस तेरस' इत्यादि। इतः ओघेण गुणस्थानकैर्गुणस्थानेषु वा आदेशेन मार्गणाभिर्माणासु वा बन्धोदयसत्त्वप्रकृतिस्थानानि अष्टकादशम्रयोदशसंख्योपेतानि यथासम्भवमिति विसृजे कथयिष्यामीत्यर्थः। बन्धस्थानान्यष्टौ २३१२५।२६।२८।२६।३०३११ उदयस्थानान्येकादश २१२४१२५।२६।२७।२८।२६।३०।३।। सत्वस्थानानि प्रयोदश ६३।१२।११।१०। ८८८४८२१८०७६।७८।१०। ॥२२०॥ नामकर्मके बन्धस्थान आठ हैं, उदयस्थान ग्यारह हैं और सत्त्वस्थान तेरह हैं। इनका ओघ और आदेशकी अपेक्षा जहाँ जो स्थान संभव हैं, उनका कथन करते हैं ॥२२०॥ अब सर्वप्रथम बन्धस्थानोको आधार बनाकर उनमें उदयस्थान और सत्त्वस्थान कहते हैं[मूलगा०२५] 'णव पंचोदयसंता तेवीसे पंचवीस छव्वीसे। अट्ट चउरट्ठवीसे णव सत्तुगुतीस तीसम्मि ॥२२१॥ बन्ध० २३ २५ २६ भट्ठावीसादिबंधेसु २८ २९ ३० उद०६६ है सत्त्व० ५ ५ ५ त्रयोविंशतिके २३ बन्धस्थाने पञ्चविंशतिके २५ षड़विंशतिके २६ बन्धस्थानेच प्रत्येकमुदयस्थानानि नव भवन्ति । सत्वस्थानानि पञ्च भवन्ति । बन्ध २३ २५ २६ उद० १११ सत्त्व ० ५ ५ ५ अष्टाविंशतिके बन्धस्थाने उदयस्थानान्यष्टौ, सत्वस्थानानि चत्वारि। एकोनत्रिंशत्के त्रिशके च बं० २८ २९ ३० बन्धस्थाने उदयस्थानानि नव भवन्ति, सत्त्वस्थानानि सप्त भवन्ति उ० ८ १ . सं० ४ ७ ७ एकत्रिंशत्के बन्धस्थाने उदयस्थानमेकम्, सत्वस्थानमेकम् । एकके बन्धस्थाने उदयस्थानमेकम्, बं० ३१ १ . सत्त्वस्थानान्यष्टौ । उपरतबन्धे दश-दशोदयसत्वस्थानानि भवन्ति ॥२२१॥ उ० १ १ १० स० १ ८ १० नामकर्मके तेईस, पच्चीस और छठवीस प्रकृतिक तीन बन्धस्थानोंमें नौ उदयस्थान, और पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। अट्ठाईसप्रकृतिक सत्त्वस्थानमें आठ उदयस्थान और चार सत्त्वस्थान होते हैं। उनतीस और तीस प्रकृतिक दो बन्धस्थानोंमें नौ उदयस्थान और सात सत्त्वस्थान होते हैं ।।२२१॥ इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। 1. सं० पञ्चसं० ५, २३२-२३४ । श्वे. सप्ततिकायां 'विभजे' इति पाठः। १. सप्ततिका०३० । तत्र प्रथमचरणे पाठोऽयम्-'अट्ठय वारस वारस' । २. सप्ततिका० ३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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