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________________ सप्ततिका ३५५ भवति । तत्र कालोऽन्तर्मुहूर्तः २१ । अत्रापर्याप्ते निष्काशिते परघाते प्रतिप्ते पञ्चविंशतिसंख्या । कथम् ? चतुर्विशतिकस्य मध्ये पर्याप्तापर्याप्तद्वयमध्ये एकतरं वर्तते । अत्र तु अपर्याप्तिनिराक्रियते [तेन चतुर्विशतिका संख्या ऊना न भवति । तत्र परघाते प्रक्षिप्ते पञ्चविंशतिकं स्थानं भवतीत्यर्थः । अत्रायशस्कीयुदये स्थूल-प्रत्येक २१२ युग्मयोः परस्परगुणिते भङ्गाश्चत्वारः ४ । यशःपाके एको भङ्ग १। मीलिताः पञ्च ५॥११५॥ इसी प्रकार पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए। परन्तु परघातका उदय शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होने तक नहीं होता, अतएव शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होनेके पश्चात् अपर्याप्त प्रकृतिको घटा करके परघातप्रकृतिको जोड़ना चाहिए। इस उदयस्थानमें पाँच भङ्ग होते हैं ॥११५॥ इस पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थानमें अयशस्कीर्तिके साथ बादर तथा प्रत्येक ये दो युगल सम्भव हैं, इसलिए इन दोनों युगलोंके परस्पर गुणा करनेसे चार भङ्ग होते हैं और यशस्कीर्त्तिके उदयमें एक भङ्ग होता है । इस प्रकार दोनों मिलकर पाँच भङ्ग हो जाते हैं। अब छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थानका प्ररूपण करते हैं 'एमेव य छव्वीसं आणापज्जत्तयस्स उस्सासं । पक्खित्ते पण भंगा कालो य सगहिदी ऊणा ॥११६॥ (का० ) २२००० । भंगा ५ । सव्वे वि २४ । ___ एवं पूर्वोक्तपञ्चविंशतिके आनप्राणपर्याप्तिपूर्णाकृतस्योच्छासनिःश्वासे प्रक्षिप्त पड्विंशतिकं २६ सामान्य केन्द्रियपर्याप्तस्य भवति । अत्र भङ्गाः पञ्च ५ । अत्र कालः स्वकीयायुःस्थितिः किञ्चिदूनता उत्कृष्टा स्थितिः वर्पसहस्राणि १००० । द्वाविंशतिः परा २२०००किञ्चिदना आतपोद्योतोदयरहितस्य सामान्यकेन्द्रियस्य सर्वे भङ्गाश्चतुर्विशतिः २४॥११६॥ इसी प्रकार छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थान आनापान पर्याप्तिके प्रारम्भ होने पर उच्छ्रास प्रकृतिके मिला देनेसे होता है । इस उदयस्थानके भङ्ग पाँच होते हैं और इसका उत्कृष्ट काल कुछ कम स्वोत्कृष्ट स्थिति-प्रमाण है ॥११॥ बादर एकेन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्षकी होती है । इस उदयस्थानसम्बन्धी पाँचों भंगोंका विवरण पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थानके समान ही जानना चाहिए। इस प्रकार इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानके पाँच, चौबीसप्रकृतिक उदयस्थानके पाँच, पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थानके नौ और छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थानके पाँच, ये सर्व भंग मिल करके २४ भंग आतप-उद्योतके उद्यसे रहित एकेन्द्रिय तिर्यश्चोंके जानना चाहिए। 'आयावुजोवुदयं जस्सेयंतस्स णत्थि पणुवीसं । सेसा उदयट्ठाणा चत्तारि हवंति पायव्वा ॥११७॥ २१॥२४॥२६॥२७॥ । येषु एकेन्द्रियेषु आतपोद्योतोदयौ भवतः, तेपामातपोद्योतसहितानां एकेन्द्रियाणामिदं पञ्चविंशतिकं स्थानं भवति । शेषनामोदयस्थानान्येकविंशतिक २१ चतुर्विशतिक २४ पडविंशतिकं २६ सप्तविंशतिकानि चत्वारि भवन्ति ॥११७॥ २१॥२४॥२६१२७ जिस एकेन्द्रिय जीवके आतप और उद्योतका उदय होता है, उसके पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है, शेष इक्कीस, चौबीस, छब्बीस और सत्ताईसप्रकृतिक चार उदयस्थान जानना चाहिए ॥११७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२१, २४,२६, २७ । 1. सं० पञ्चसं० ५, १३६ । 2. ५, १३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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