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________________ [ १६१ ] अभिमानसुखाभावे तथा अपायशक्तियोगाच्च न हीत्थं ܕ अपुनर्बन्ध : स्वरूप | १३३ धन, यौवन तथा सौन्दर्य हीन पुरुष भोग-सुख न पा सकने के कारण भीतर ही भीतर अत्यन्त क्लेश पाता है । सुख तो उसे नाम मात्र का भी नहीं । क्लिष्टान्तरात्मनः । भोगिनः सुखम् ॥ [ १९२ ] तु अतोऽन्यस्य धन्यादेरिवमत्यन्तमुत्तमम् । यथा तथैव शान्तादेः शुद्धानुष्ठानमित्यपि ॥ भोगसम्पन्न पुरुष के भोगमय सुख की अपेक्षा शान्त, उदात्त प्रकृति युक्त भव्य पुरुष का शुद्ध - अध्यात्मोन्मुख अनुष्ठान अत्यन्त श्रेष्ठ है । उसी मैं वास्तविक सुख है । [ १९३ ] कोधाद्यबाधितः शान्त उदात्तस्तु महाशयः । शुभानुबन्धिपुण्याच्च विशिष्टमतिसङ्गतः " आत्मसंयत पुरुष क्रोध आदि से बाधित नहीं होता - क्रोध के वशीभूत नहीं होता । वह शान्त, उदात्त एवं पवित्र आशय - अन्तर्भाव लिये रहता है । वह पुण्यात्मक शुभ कार्यों में लगा रहता है । अतः उसे विशिष्टसौम्यता, सौजन्य, औदार्य आदि विशिष्ट गुणयक्त बुद्धि प्राप्त रहती है । [ १६४ ] ऊहतेऽयमतः प्रायो कान्तादिगतगेयादि तथा भोगीव सुन्दरम् Jain Education International भवबीजादिगोचरम् । भोगासक्त पुरुष रूपवती स्त्री द्वारा गाये जाते सुन्दर गीत आदि पर अत्यन्त रीझा रहता है-उसमें पगा रहता है, उसी प्रकार अपुनर्बन्धक जीव भव - बीज - संसार में आवागमन - जन्म-मरण के चक्र के मूल कारण क्या है, उनसे छुटकारा कैसे हो, इत्यादि विषयों पर तल्लीनतापूर्वक चिन्तनविमर्श में खोया रहता है । For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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