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________________ ६६ | योगबिन्दु पित्रोः सम्यगुपस्थानाद् ग्लानभैषज्यदानतः । देवादिशोधनाच्चैव भवेज्जातिस्मरः पुमान् ब्रह्मचर्य, तपश्चरण, वेदादि सत् शास्त्रों का अध्ययन, विद्या व मन्त्र की आराधना, उत्तम तीर्थों का आसेवन, माता-पिता की सम्यक् सेवाशुश्रषा, रोगियों को औषध-दान, देवस्थान-पूजास्थान आदि का सम्मार्जन, सफाई-इन शुभ कर्मों के आचरण से मनुष्य में पूर्व जन्म का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। अतएव न सर्वेषामेतदागमतेऽपि हि । परलोकाद् यथैकस्माद् स्थानात् तनुभृतामिति ॥ जैसे किसी एक स्थान से दूसरे स्थान में गये लोगों में सबको पिछले स्थान से सम्बद्ध घटनाएँ स्मरण नहीं रहतीं, उसी प्रकार परलोक से नये जन्म में आये सभी प्राणियों को अपना पूर्वभव-पिछला जन्म, कार्य, घटनाक्रम आदि स्मरण नहीं रहते । [ ६० ] न चैतेषामपि ह्येतदुन्मादग्रहयोगतः । सर्वेषामनुभूतार्थस्मरणं स्याद् विशेषतः ॥ जो उन्माद-मानसिक विक्षिप्तता या पागलपन से पीड़ित होते हैं, प्रेत-बाधा से ग्रस्त होते हैं, उन्हें भी अपने द्वारा पहले दृष्ट, अनुभूत वस्तुएं, जीवन में घटित घटनाएँ विशेषत: स्मरण नहीं रहतीं। सामान्येन तु सर्वेषां स्तनवृत्त्यादिचिन्हितम् । अभ्यासातिशयात् स्वप्नवृत्तितुल्यं व्यवस्थितम् ॥ सामान्यतः सभी प्राणियों में यह दृष्टिगोचर होता है, ज्यों ही वे जन्म लेते हैं, दूध के लिए मां के स्तनों की ओर स्वयं प्रवृत्त होते हैं । जिन कार्यों का जीवन में सतत अभ्यास होता है, जिन पर बार-बार चिन्तनविमर्श चलता रहता है, स्वप्न में प्रायः वे ही दीखते हैं। उसी प्रकार अभ्यासा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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