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________________ तीर्थकर [ ४५ में त्रिलोकीनाथ हैं। ईशान स्वर्ग का सुरेन्द्र धवल वर्ण का छत्र लगाए है । सनत्कुमार तथा महेन्द्र नामक इन्द्रयुगल देवाधिदेव के ऊपर चामर ढुरा रहे हैं । उस लोकोत्तर दृश्य की कल्पना ही जब हृदय में पीयूष धारा प्रवाहित करती है, तब उसके साक्षात् दर्शन से जीवों की क्या मनःस्थिति हुई होगी ? जिनसेनाचार्य कहते हैं---- दृष्ट्वा तदातनी भति कुष्टिमरुतो परे। सन्मार्गरुचिमातेनुः इन्द्र-प्रामाण्यमास्थिताः ॥६३॥ उस समय की विभूति का दर्शन करके अनेक मिथ्यादष्टि देवा न इन्द्र को प्रमाणरूप मानकर सम्यक्त्वभाव को प्राप्त किया था । सुमेरु की ओर प्रस्थान __महापुराण में लिखा है, "मेरु पर्वत पर्यन्त नीलमणियों से निर्मित सोपान-पंक्ति ऐसी शोभायमान हो रही थी, मानो नीले दिखने वाले नभोमंडल ने भक्तिवश सीढ़ियाँ रूप परिणमन कर लिया हो । समस्त सुर-समाज ज्योतिषपटल का उल्लंघन कर जब ऊपर बढ़ा, तब वे तारापों न समलंकृत गगनमंडल को ऐसा सोचते थे, मानो यह कुमुदिनियों में शोभायमान सरोवर ही हो । ज्योतिषपटल म ७६० योजन पर तारापों का सद्भाव है। उसके आगे दश योजन ऊँचाई पर सूर्य का विमान है ; पश्चात् ८० योजन ऊपर जाने पर चन्द्र का विमान है । तीन योजन पर नक्षत्र हैं। तीन योजन ऊपर बुध है । तीन योजन ऊपर शुक्र है । तीन योजन ऊपर बृहस्पति है। चार योजन ऊपर मङ्गल है । चार योजन ऊपर शनैश्चर का विमान है ।' इस प्रकार ७६० योजन से ऊपर ११० योजन में ज्योतिषी १ जैनागम के अनुसार ८०० महायोजन अर्थात् ८००-२००० कोश प्रति १,६००,००० कोश पर सूर्य विमान है। शनैश्चर का विमान ६०० महायोजन अर्थात् १८००,... कोश पर स्थित है। मेरु पर्वत एक लाख योजन प्रमाण ऊँचा है। एक हजार योजन तो उसकी गहराई है। चालीस योजन की चलिका है। अतः भतल से 88०४० योजन पर मेरु शिखर है। वह 80४०x२००० प्रति १९८०८०००० कोश पर है। उतनी ऊँचाईक देवों के सिवाय ऋद्धिधारी मुनि तथा विद्याधर भी जाते हैं । अतः ज्योतिर्लोक तक मनुष्यों के पहुंचने की संभावना तनिक भी अचरजकारी नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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