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________________ तीर्थकर [ २३६ साम्राज्य के स्वामी जगत्पिता जिनेन्द्र के विहार के योग्य समय को विचार कर विवेकमूर्ति सुरेन्द्र ने प्रभु के समक्ष उनके विहारार्थ इस प्रकार विनयपूर्ण निवेदन किया :-- भगवन् भव्य-सस्यानां पापावग्रहशोषिणाम् । धर्मामृत - प्रसेकेन त्वमेधि शरणं विभो ॥। २५-- २२८ ॥ हे भगवन् ! भव्य जीवरूपी धान्य पापरूपी अनावृष्टि अर्थात् वर्षाभाव से सूख रहे हैं । उन्हें धर्मरूपी अमृत से सींचकर आपही शरणरूप होइये । भव्यसार्थाधिप-प्रोद्यद्-वयाध्वजविराजितम् । धर्मचक्रमिदं सज्जं त्वज्जयोद्योग-साधनम् ॥ २२६ ॥ हे भव्यवृन्द-नायक जिनेन्द्र ! हे दयाध्वज - समलंकृत देव ! आपकी विजय के उद्योग को सिद्ध करनेवाला यह धर्मचक्र तैयार है । निर्धूय मोहन मुक्तिमार्गपरोधिनीम् । तवोपवेष्टुं सम्मार्ग कालोयं समुपस्थित : ॥ २३०॥ हे स्वामिन् ! मोक्षमार्ग को रोकने वाली मोह सेना का विनाश करने के पश्चात् अब आपका यह समीचीन मोक्षमार्ग के उपदेश देने का समय उपस्थित हुआ है । सुरेन्द्र द्वारा प्रभु के धर्मविहार हेतु प्रस्तुत किए गए प्रस्ताव में यह महत्वपूर्ण बात कही गई है, कि भगवान ने मोह की सेना का ध्वंस कर दिया है, अतएव वीतमोह जिनेन्द्र वीतरागता की प्रभावपूर्णं देशना करने में सर्वरूप से समर्थ हैं । विहार प्रारम्भ इन्द्र की प्रार्थना के पश्चात् भगवान ने भव्यरूपी कमलों के कल्याणार्थ विहार प्रारम्भ किया । महापुराणकार कहते हैं। त्रिजगव् बल्लभः श्रीमान् भगवानादिपूरुषः । प्रचक्रे विजयोद्योगं धर्मचक्राधिनायकः ॥ २४ ॥ :-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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