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________________ १८० ] तीर्थकर भगवान के विहार के समय पके हुए शालि आदि धान्यों से सुशोभित पृथ्वी ऐसी जान पड़ती थी, मानो स्वामी का लाभ होने से उसे हर्ष के रोमांच ही उठ पाए हों। (४) सुगंधित वायु बह रही थी (५) मेघकुमार जाति के देवों के द्वारा गंधयुक्त जल की वृष्टि होती थी (६) पृथ्वी भी एक योजन पर्यन्त दर्पण के समान उज्ज्वल हो गई थी। कमल रचना (७) भगवान के विहार करते समय सुगंधित तथा प्रफुल्लित २२५ कमलों की रचना देवगण करते थे। उनके चरणों के नीचे एक, उनके आगे सात, पीछे सात इस प्रकार पंद्रह सुवर्णमय कमल थे। आकाशादि स्थानों में निर्मित सुवर्ण कमलों की संख्या २२५ कही गई है। प्राचार्य प्रभाचंद ने लिखा है “अष्टसु दिक्षु तदन्तरेषु चाष्टसु सप्त-सप्तपद्मानि इति द्वादशोत्तरमेकं शतं । तथा तदंतरेषु षोडशसु सप्तसप्तेति अपरं द्वादशोतरशतं, पादन्यासे पद्मं चेति पंचविंशत्यधिकं शतद्वयम् ।" (क्रियाकलापटीका पृ० २४६ श्लोक ६ नंदीश्वरभक्ति की संस्कृत टीका) आठ दिशाओं में (चार दिशाओं तथा चार विदिशाओं में ) तथा उनके अष्ट अंतरालों में सप्त सप्त कमलों की रचना होने से एक सौ बारह कमल हुए। उन सोलह स्थानों के भी सोलह अंतरालों में पूर्ववत् सात-सात कमल थे। इस प्रकार एक सौ बारह कमल और हुए। कुल मिलकर २२४ हुए । "पादन्यासे च एकं"--चरण को रखने के स्थान के नीचे एक कमल था। इस प्रकार २२५ कमलों की रचना होती है। विहार की मुद्रा इस कथन पर विचार करने से यह विदित होता है कि भगवान का विहार पद्मासन मुद्रा से नहीं होता है । पैर के न्यास अर्थात् रखने के स्थान पर एक कमल होता है, यहां 'व्यास' शब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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