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________________ आचारांग नियुक्ति ३०५ १९७. द्वितीय उद्देशक में संयम में अदृढ़ता का निरूपण है। कोई मुनि अरति के कारण संयम में शिथिल हो जाता है। यह अरति अज्ञान, काम, लोभ आदि अध्यात्मदोषों से उत्पन्न होती तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय १९८,१९९. तीसरे अध्ययन के चार उद्देशक हैं । उनके अर्थाधिकार इस प्रकार हैं१. पहले उद्देशक में सुप्त गृहस्थों के दोषों तथा जागृत गृहस्थों के गुणों का प्रतिपादन है। २. दूसरे उद्देशक का प्रतिपाद्य यह है- दुःखों का अनुभव वे ही असंयत मनुष्य करते हैं, जो भावनिद्रा ग्रस्त हैं। ३. तीसरे उद्देशक का प्रतिपाद्य है कि केवल दुःख सहने से ही नहीं, उसको न करने से श्रमण होता है। ४. चौथे उद्देशक में कषायों के वमन का उपदेश, पाप कर्मों से विरति तत्त्वज्ञ के ही संयम की निष्पत्ति तथा भवोपनाही कर्मों के क्षय से मोक्ष होता है - इनका प्रतिपादन है। २००. शीत और उष्ण के चार-चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । २०१. द्रव्यशीत--शीतल द्रव्य, द्रव्य उष्ण-उष्णद्रव्य । पुद्गलाश्रित भावशीत-पुद्गल का शीतगुण । पुद्गलाश्रित भावउष्ण पुद्गल का उष्णगुण । जीव का शीतोष्णरूप गुण अनेक प्रकार का है। (जैसे-जीव का औदयिक भाव उष्ण है, औपशमिक भाव शीत है, क्षायिकभाव भी शीत है अथवा समस्त कर्मों का दहन करने के कारण यह उष्ण है।) २०२. यहां शीत अर्थात् भावशीत का अर्थ है-जीव का परिणाम । प्रमाद-कार्यमैथिल्य शीतलविहारता, उपशम-मोहनीय कर्म का उपशम, विरति--सतरह प्रकार का संयम, सुख-सातवेदनीय का उदय - ये सारे अपीडाकारक होने से भावशीत हैं। सभी परीषह, तप में उद्यम, कषाय, शोक, वेदोदय, अरति तथा दु:ख--असातवेदनीय का उदय-ये सारे पीडाकारक होने के कारण भाव उष्ण हैं। २०३. स्त्री परीषह तथा सत्कार परीषह-ये दोनों मन के अनुकूल होने के कारण शीत परीषह हैं । शेष बीस परीषह (मन के प्रतिकूल होने के कारण) उष्ण होते हैं। २०४. जो तीव्र परिणाम वाले परीषह होते हैं, वे उष्ण तथा जो मंद परिणाम वाले परीषह हैं, वे शीत कहलाते हैं । २०५. जो धर्म में प्रमाद करता है तथा अर्थोपार्जन में शीतल है-वह शीत है। इसके विपरीत जो संयम के प्रति उद्यमशील है, वह उष्ण है। २०६. जिसके कषाय उपशांत हैं वह शीतीभूत, कषाय की ज्वाला बुझ जाने से परिनिर्वत, राग-द्वेष के उपशमन से उपशांत और कषाय के परिताप के उपशमन से प्रह्लादित होता है। यह सारा परिणाम उपशांत कषाय वाले के होता है, इसलिए उपशांत कषाय शीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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