SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५४ परि. ३ : कथाएं चिलातक सुसुमा का सिर लिए भागा जा रहा था। वह दिग्मूढ हो गया। उस समय उसने एक मुनि को आतापना लेते हुए कायोत्सर्ग की स्थिति में देखा। चिलातक उसके निकट जाकर बोला- 'मुने! संक्षेप में मुझे धर्म की बात कहो, अन्यथा मैं तुम्हारा भी सिर काट डालूंगा।' मुनि बोले- 'संक्षेप में धर्म हैउपशम, विवेक और संवर।' चिलातक इन शब्दों को ग्रहण कर वहां से उठा और एकान्त में जाकर चिन्तन करने लगा। उसने सोचा क्रोध आदि कषायों का उपशमन करना चाहिए। मैं क्रुद्ध हूं, मुझे क्रोध को शांत कर देना है। दूसरा शब्द है-विवेक। इसका अर्थ है-त्याग । मुझे धन और स्वजन का त्याग कर देना है। उसने तत्काल सुंसुमा के कटे सिर तथा तलवार को फेंक दिया। तीसरा शब्द है-संवर। मुझे इन्द्रिय और नोइन्द्रिय-मन का संवरण करना है। वह ध्यानलीन हो गया। रुधिर की गंध से चींटियां चिलातक को काटने लगीं। उन्होंने उसके शरीर को चालनी जैसा बना डाला। चींटियां पैरों से शरीर के भीतर प्रवेश कर सिर की चोटी के भाग से बाहर निकलीं। चींटियों ने शरीर के भीतरी भाग को आवागमन का मार्ग बना डाला। फिर भी मुनि ध्यान से विचलित नहीं हुए। ढाई दिन तक उसने वेदना को समभाव से सहा। मरकर वह वैमानिक देव बना। ११६. संक्षेप का उदाहरण आत्रेय, कपिल, बृहस्पति तथा पांचाल-इन चारों ऋषियों ने एक-एक लाख श्लोकों के चार ग्रन्थ बनाए। वे चारों महाराज जितशत्रु के समक्ष आए और बोले- 'आप पांचवें लोकपाल हैं अतः हमारे शास्त्र सुनें।' राजा ने पूछा- 'आपका ग्रन्थ कितना बड़ा है ?' वे बोले- 'प्रत्येक ग्रन्थ एक-एक लाख श्लोक परिमाण वाला है। चारों को मिलाने पर चार लाख श्लोक होंगे। राजा बोला- 'इतना समय यदि मैं दूं तो राज्य की व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। आप अपने ग्रन्थों को संक्षिप्त करें।' ग्रन्थों को संक्षिप्त करते-करते प्रत्येक ग्रन्थ में एक-एक श्लोक सुनने के लिए भी राजा तैयार नहीं हुआ। तब चारों ऋषियों ने अपने-अपने मत का प्रतिपादन करने वाले एक-एक चरण का निर्माण कर एक श्लोक बनाया। वह यह था ‘जीर्णे भोजनमात्रेयः, कपिल: प्राणिनां दया। बृहस्पतिरविश्वासः, पाञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् ॥' ११७. धर्मरुचि बसंतपुर नगर में जितशत्रु महाराजा की रानी धारिणी ने पुत्र का प्रसव किया। पुत्र का नाम धर्मरुचि रखा गया। स्थविर अवस्था में राजा ने प्रव्रज्या लेनी चाही। उसने धर्मरुचि को राजा बनाना चाहा। धर्मरुचि ने मां से पूछा- 'मां! पिताश्री राज्य का त्याग क्यों करना चाहते हैं?' मां बोली- 'पुत्र! राज्य संसार बढ़ाने का हेतु है।' वह बोला- 'मां! मैं भी राज्य नहीं चाहता।' वह अपने पिता के साथ तापस बन गया। एक दिन आश्रम में यह घोषणा की गई कि कल अमावस्या है। अमावस्या के दिन फल-फल तोडना निषिद्ध है अत: जिनको संग्रह करना हो वे आज ही कर लें। धर्मरुचि ने यह घोषणा सुनी। उसने सोचा- 'यदि कभी भी फल-फूल का छेदन-भेदन न किया जाए तो कितना सुन्दर हो। एक दिन कुछेक मुनि आश्रम के निकट १. आवनि. ५६५/७-१०, आवचू. १ पृ. ४९६-४९८, हाटी. १ पृ. २४७, २४८, मटी. प. ४७९, ४८०। २. आवनि. ५६५/११, आवचू१ पृ. ४९८, हाटी. १ पृ. २४८, मटी. प. ४८० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy