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________________ ३३ भूमिका सामायिक नियुक्ति षडावश्यक में प्रथम स्थान सामायिक को प्राप्त है। नियुक्तिकार ने अंतिम पांच आवश्यकों पर जितना विस्तार नहीं किया उससे भी अधिक गाथाओं में सामायिक आवश्यक की व्याख्या की है। श्रुतज्ञान के प्रसंग में भी उन्होंने सामायिक को प्रथम एवं बिंदुसार को अंतिम स्थान दिया है। नियुक्ति-रचना के क्रम में भद्रबाहु ने सर्वप्रथम आवश्यक नियुक्ति की रचना की अतः इसमें उन्होंने अनेक विषयों का प्रतिपादन कर दिया है। बाद में लिखी जाने वाली नियुक्तियों में अनेक विषयों की व्याख्या के प्रसंग में उन्होंने सामायिक नियुक्ति में प्रतिपादित विषयों की ओर संकेत किया है। सामायिक नियुक्ति में मंगलाचरण के रूप में उन्होंने किसी इष्टदेव को वंदन नहीं किया। पंचज्ञान रूपी नंदी के विस्तृत विवेचन से ग्रंथ का प्रारम्भ होता है। पांच ज्ञान का संक्षिप्त किन्तु सांगोपांग वर्णन इस ग्रंथ में मिलता है। ज्ञानमीमांसा का जो गहन विवेचन इस ग्रंथ में हुआ है, वह सम्पूर्ण दार्शनिक परम्परा की अपूर्व धरोहर है। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विस्तृत व्याख्या के साथ ज्ञान के विषय में प्रचलित उस समय के मतमतान्तरों का उल्लेख भी विशेषावश्यक भाष्य में कर दिया है। ज्ञान की प्रस्तुति के बाद अमितज्ञानी भगवान् महावीर, गणधर, आचार्य एवं उपाध्यायों को वंदना की गयी है। भद्रबाहु ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि पांच ज्ञानों में श्रुत ज्ञान ही परम उपकारक एवं दीपक की भांति स्व पर प्रकाशक है। श्रुतज्ञान के द्वारा ही सब ज्ञानों का निरूपण हो सकता है अत: वे प्रतिज्ञा करते हैं- 'सुयनाणस्स भगवओ, निजुत्तं कित्तइस्सामि' अर्थात् मैं श्रुतज्ञान की नियुक्ति कहूंगा। यहां उनके द्वारा उल्लिखित श्रुतज्ञान का तात्पर्य उन आगमों से हैं, जिन पर वे नियुक्तियां लिखना चाहते हैं। आगे उन्होंने प्रतिज्ञात ग्रंथों का नामोल्लेख भी किया है। आचार्य भद्रबाहु को आगम ग्रंथों के प्रथम व्याख्याकार होने का सौभाग्य प्राप्त है। उन्होंने अपनी व्याख्या का नाम नियुक्ति रखा है तथा नियुक्ति शब्द का वाच्यार्थ भी स्पष्ट किया है। नियुक्ति की व्याख्या प्रस्तुत करके आचार्य भद्रबाहु ने श्रुतज्ञान अर्थात् आगमग्रंथ के उद्भव को बहुत सरस रूपक से समझाया है। तीर्थंकर केवलज्ञान रूप पुष्पों की वृष्टि करते हैं और गणधर उसे अपने बुद्धि-पट में धारण करके माला आदि का संग्रथन करते हैं। तीर्थंकर केवल अर्थ रूप में देशना देते हैं तथा गणधर उसको सूत्र रूप में प्रस्तुत करते हैं। आचार्य भद्रबाहु जिन दश नियुक्तियों को लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं, उनमें प्रथम स्थान आवश्यक नियुक्ति को प्राप्त है। आवश्यक नियुक्ति में भी नियुक्तिकार सामायिक नियुक्ति की रचना का विशेष रूप से संकल्प करते हैं क्योंकि यह गुरु परम्परा से उपदिष्ट है। नियुक्तिकार स्पष्ट संकेत करते हैं कि श्रुतज्ञान का सार चारित्र है और चारित्र का सार निर्वाण है। इस प्रसंग में साहित्यिक शैली में अंधे और पंगु की उपमा द्वारा ज्ञान और चारित्र के संयोग की पुष्टि की है। उनके अनुसार चारित्र रहित ज्ञान निरर्थक है। नियुक्तिकार ने आगम ग्रंथों में प्रथम स्थान सामायिक को तथा अंतिम स्थान बिंदुसार को दिया है। १. आवनि. ८७। ५. आवनि. ८३-८५। २. विभामहे ७९-८३६। ६. आवनि. ८६। ३. आवनि. ७९। ७. आवनि.८० ४. आवनि.८२। ८. आवनि. ८१/२। ९. आवनि.८७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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