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________________ आवश्यक नियुक्ति २०१ तीर्थंकर श्रेयांस के समय में त्रिपृष्ठ वासुदेव , वासुपूज्य के समय में द्विपृष्ठ, विमल के समय में स्वयंभू , अनन्त के समय में पुरुषोत्तम तथा धर्म के समय में पुरुषसिंह। अर तीर्थंकर तथा मल्लि के अतंराल में दो वासुदेव-पुरुषपुंडरीक और दत्त, मुनिसुव्रत और नमि के अंतराल में नारायण तथा नेमि के समय में कृष्ण वासुदेव हुए। २४२. चक्रवर्ती और वासुदेव के होने का क्रम इस प्रकार है-पहले दो चक्रवर्ती-भरत और सगर, फिर पांच वासुदेव-त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम और पुरुषसिंह, फिर पांच चक्रवर्ती-मघवा, सनत्कुमार, शांति, कुंथु और अर, फिर पुरुषपुंडरीक वासुदेव फिर सुभूम चक्रवर्ती, फिर दत्त वासुदेव और पद्म चक्रवर्ती, फिर नारायण वासुदेव और हरिषेण तथा जय चक्रवर्ती, फिर वासुदेव कृष्ण और तत्पश्चात् ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती। २४३. (भरत ने ऋषभ से पूछा-इस धर्म परिषद् में क्या कोई ऐसा व्यक्ति है, जो भविष्य में तीर्थंकर होगा?) उस परिषद् में आदि परिव्राजक मरीचि था। वह भगवान् ऋषभ का पौत्र, स्वाध्याय और ध्यान से युक्त तथा एकान्त में चिंतन करने वाला महात्मा था। २४४, २४५. भगवान् ने चक्रवर्ती भरत के पूछने पर मरीचि की ओर संकेत करते हुए कहा-यह अंतिम धर्मचक्रवर्ती होगा। इसका नाम वीर होगा और यह पोतना नामक नगरी का अधिपति त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव होगा। महाविदेह में मूका नगरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती होगा। २४६. भगवान् के वचनों को सुनकर चक्रवर्ती भरत रोमांचित हुआ। वह भगवान् की अभिवंदना कर मरीचि को वंदना करने चला। २४७-२४९. भरत विनयपूर्वक मरीचि के निकट आया और तीन बार प्रदक्षिणा कर वंदना करते हुए इन मधुर वचनों से उसकी अभिस्तवना करने लगा-'तुमने निश्चित ही बहुत लाभ अर्जित किया है। जिसके फलस्वरूप तुम वीर नाम वाले चौबीसवें अंतिम धर्मचक्रवर्ती-तीर्थंकर बनोगे। मैं तुम्हारे इस जन्म के पारिव्राज्य को वंदना नहीं करता। तुम अंतिम तीर्थंकर बनोगे इसलिए वंदना करता हूं।' २५०. इस प्रकार मरीचि की स्तवना कर, तीन बार प्रदक्षिणा कर भरत पिता ऋषभ से पूछकर विनीता नगरी में प्रवेश कर गया। २५१-२५३. भरत के वचनों को सुनकर तीन बार पैरों को आस्फोटित कर अथवा अपनी साथल पर तीन बार ताल ठोककर, अत्यधिक प्रसन्न होकर मरीचि बोला- 'यदि मैं प्रथम वासुदेव, विदेह की मूका नगरी में चक्रवर्ती और इस भरतवर्ष में चरम तीर्थंकर बनूंगा तो मेरे लिए इतना पर्याप्त है। मैं प्रथम वासुदेव, मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती और मेरे पितामह ऋषभ प्रथम तीर्थंकर हैं-अहो! मेरा कुल उत्तम है।' २५४. भव को मथने वाले भगवान् ऋषभ एक लाख पूर्व तक ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए अष्टापद पर्वत पर पहुंचे। २५५. अष्टापद पर्वत पर महर्षि ऋषभ छह दिनों की तपस्या में दस हजार अनगारों के साथ अनुत्तर निर्वाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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