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________________ १७४ आवश्यक नियुक्ति नदी के उपल। ३. पिपीलिका ४. पुरुष ५. पथ ६. ज्वर ७. कोद्रव ८. जल ९. वस्त्र। १०१. संसार से संयोग कराने वाले प्रथम चतुष्क अनन्तानुबंधी कषायों के उदय से भव-सिद्धिक जीव भी सम्यक्-दर्शन का लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। १०२. कषाय के दूसरे चतुष्क-अप्रत्याख्यानावरण के उदय से प्राणी सम्यग्दर्शन का लाभ प्राप्त कर सकता है परन्तु विरताविरति अर्थात् देशविरति की अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकता। १०३. कषाय के तीसरे चतुष्क प्रत्याख्यानावरण के उदय से प्राणी देशविरति के भी एक देश की विरति प्राप्त कर सकता है किन्तु चारित्र की प्राप्ति नहीं कर सकता। १०४. मूलगुणों के घातक (अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी) कषायों के उदय से मूलगुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती। संज्वलन कषाय के उदय से यथाख्यात चारित्र की उपलब्धि नहीं होती। १०५. (आलोचना से लेकर छेदपर्यन्त प्रायश्चित्त से शोध्य) सभी अतिचार संज्वलन कषाय के उदय से होते हैं। जो दोष मूल अर्थात् आठवें प्रायश्चित्त से शुद्ध होता है, वह दोष अनन्तानुबंधी आदि बारह प्रकार की कषाय-अवस्थाओं के उदय से होता है। १०६-१०८. जब बारह प्रकार के कषायों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होता है, तब प्रशस्त योगों से चारित्र की उपलब्धि होती है । चारित्र के पांच भेद ये हैं-१. सामायिक २. छेदोपस्थापनीय ३. परिहारविशुद्धि ४. सूक्ष्मसंपराय ५. यथाख्यात । ये पांचों चारित्र समूचे जीव लोक में विश्रुत हैं। इनका पालन कर सुविहित मुनि अजरामर स्थान (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं। १०९. (पांच प्रकार के चारित्र में प्रथम तीन क्षयोपशमजन्य हैं तथा शेष दो उपशम अथवा क्षयजन्य हैं।) उपशम श्रेणी में कर्मों के उपशम का क्रम यह है-उपशम श्रेणी में आरूढ मुनि सबसे पहले अन्तर्मुहूर्त में एक साथ अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा उसके बाद एक साथ दर्शनत्रिक को उपशान्त करता है। यदि उपशम श्रेणी का प्रारंभक पुरुष है तो वह पहले नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हास्यादिषट्क तथा अंत में पुरुषवेद को उपशमित करता है। यदि प्रारंभिका स्त्री है तो उपशम का क्रम यह होगा-नपुंसकवेद, पुरुषवेद, हास्यादिषट्क, फिर स्त्रीवेद। यदि प्रारंभक नपुंसक है तो उपशमन का क्रम यह होगा-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्यादिषट्क, नपुंसकवेद। फिर एकान्तरित प्रथम दो-दो सदृश विभाग क्रोध आदि एक साथ उपशान्त होते हैं। अर्थात्-वह मुनि सबसे पहले अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध-इन दो प्रकार के सदृश क्रोधों का एक साथ उपशमन करता है फिर अकेले संज्वलन क्रोध को। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण मान का उपशमन कर अकेले संज्वलन मान का उपशमन करता है। इसी प्रकार माया और लोभ के भी प्रथम दो-दो विभागों के साथ संज्वलन माया और लोभ का उपशमन करता है। (संज्वलन लोभ का उपशमन करता हुआ मुनि उसके तीन भाग करता है। वह दो भागों का एक साथ उपशमन करता है तथा तीसरे भाग का असंख्येय खंड कर एक-एक खंड को पृथक्-पृथक् काल में उपशान्त करता है। फिर संख्येय खंड के चरम खंड के असंख्य खंड कर सूक्ष्मसंपराय में वर्तमान मुनि एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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