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________________ वि. सं. १०० सर्वज्ञकी सिद्धि १०१ सिद्धपरमेष्ठी के स्वरूपका वर्णन १०२ आचार्यपरमेष्ठीके स्वरूपका कथन १०३ उपाध्याय परमेष्ठी के स्वरूपका वर्णन १०४ साधुपरमेष्ठी के स्वरूपका वर्णन १०५ निश्चयध्यानके स्वरूपका वर्णन १०६ 'मनवचनकायकी प्रवृत्तिको रोककर जां निज आत्मामें स्थिर होना है वही परमध्यान है' यह वर्णन विषय Jain Education International [ २४ ] पृष्ठ १६६ १७० १७१ १७३ १७३ १७५ १७६ १७९ १०७ 'ध्यानकी सिद्धिके लिये तप श्रुत और व्रत इन तीनों में तत्पर हो' यह वर्णन १०८ 'व्यानके कारण तप, श्रुत और व्रत कैसे होते हैं ?" इस शंकाका समाधान परिशिष्ट १ - बृहद्रव्यसंग्रह (मूल गाथाएँ) परिशिष्ट २ - लघुद्रव्य संग्रह (सार्थ) १८० वि. सं. विषय १०९ ' इस समय ध्यान नहीं है' इस शंकाका समाधान ११० ' इस समय मोक्ष नहीं है फिर ध्यानसे क्या प्रयोजन है ?" इस शंकाका समाधान १११ पुनः मोक्ष के विषय में नयोंका विचार ११२ 'आत्मा' शब्दका अर्थ ११३ शास्त्रकारकी प्रार्थना उपसंहार ११४ टीकाकारकी प्रार्थना ११५ तीनों अधिकारोंके नाम और ग्रन्थकी समाप्ति For Private & Personal Use Only पृष्ठ १९० पृष्ठ १९३ पृष्ठ १८२ १८३ १८५ १८६ १८७ १८८ १८९ www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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