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________________ ९७ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः अथ महाहिमवत्पर्वतस्थमहापद्महदाइक्षिणदिग्विभागेन हैमवतक्षेत्रमध्ये समागत्य तत्रस्थनाभिगिरिपर्वतं योजनार्धनास्पृशन्ती तस्यैवार्धे प्रदक्षिणं कृत्वा रोहित्पूर्वसमुद्र गता। तथैव हिमवत्पर्वतस्थितपग्रहदादुत्तरेणागत्य तमेव नाभिगिरि योजनार्धनास्पृशन्ती तस्यैवार्द्धप्रदक्षिणं कृत्वा रोहितास्या पश्चिमसमुद्रं गता। इति रोहिद्रोहितास्यासंगं नदीद्वन्द्वं हैमवतसंज्ञजघन्यभोगभूमिक्षेत्रे ज्ञातव्यम्। अथ निषधपर्वतस्थिततिगिञ्छनामहूदाद्दक्षिणेनागत्य नाभिगिरिपर्वतं योजनार्धनास्पृशन्ती तस्यैवार्धप्रदक्षिणं कृत्वा हरित्पूर्वसमुद्रं गता। तथैव महाहिमवत्पर्वतस्थमहापद्मनामहदादुत्तरदिग्विभागेनागत्य तमेव नाभिगिरि योजनार्धनास्पृशन्तो तस्यैवार्धप्रदक्षिणं कृत्वा हरिकान्ता नाम नदी पश्चिमसमुद्रं गता। इति हरिरिकान्तासंज्ञं नदीद्वयं हरिसंज्ञमध्यमभोगभूमिक्षेत्रे विज्ञेयम् । अथ नीलपर्वतस्थितकेसरिनामहदाद्दक्षिणेनागत्योत्तरकुरुसंज्ञोत्कृष्टभूमिक्षेत्रे मध्येन गत्वा मेरुसमीपे गजदन्तपर्वतं नित्त्वा च प्रदक्षिणेन योजनार्धन मेरुं विहाय पूर्वभद्रशालवनस्य मध्येन पूर्वविदेहस्य च मध्ये शोतानामनदी पूर्वसमुद्रं गता। तथैव निषधपर्वतस्थिततिगिञ्छहदादुत्तरदिग्विभागेनागत्य देवकुरुसंज्ञोत्तमभोगभूमिक्षेत्रमध्येन गत्वा मेरुसमीपे गजदन्तपर्वतं भित्त्वा च प्रदक्षिणेनायोजनार्धन मेरुं विहाय पश्चिमभद्रशालवनस्य मध्येन पश्चिमविदेहस्य च मध्येन शीतोदा पश्चिमसमुद्रं गता। एवं शीताशीतोदासंज्ञं नदीद्वयं विदेहाभिधाने कर्मभूमिक्षेत्रे ज्ञातव्यम् । यत्पूर्व गङ्गासिन्धुनदीद्वयस्य विस्तारावगाहप्रमाणं भणितं तदेव क्षेत्रे अब पूर्वकथनके पश्चात् वर्णन करते हैं-महाहिमवत् पर्वतपर स्थित जो महापद्मनामा ह्रद है, वहाँसे चलकर, दक्षिण दिशाकी ओरसे हैमवत क्षेत्रके मध्यमें आकर, वहाँपर स्थित जो नाभिगिरि नामक पर्वत है, उसको आधे योजनतक स्पर्श करती हुई, उसी पर्वतकी आधी प्रदक्षिणा करती हुई रोहित् नामा नदी पूर्वसमुद्रको गई है। और इसी प्रकार रोहितास्या नामा जो नदी है वह हिमवत् पर्वतके पद्महदसे उत्तरको आकर, उसी नाभिगिरिको अर्ध योजनपर्यन्त स्पर्श करती हुई, उसी पर्वतकी आधी प्रदक्षिणा करके पश्चिम समुद्रमें गई है। ऐसे रोहित और रोहितास्या नामकी धारक दो नदियाँ हैमवत नामक जो जघन्य भोगभूमिका क्षेत्र है उसमें जाननी चाहिये। और हरित नामा नदी निषध पर्वतके तिगिछहदसे दक्षिणको आकर, आधे योजनतक नाभिगिरि पर्वतको छूती हुई उसी पर्वतकी आधी प्रदक्षिणा करके पूर्वसमुद्र में गई है। एवमेव हरिकान्ता नामा नदो महाहिमवत् पर्वतके महापद्म नामक ह्रदसे उत्तर दिशाकी ओर आकर, उसी नाभिगिरिको आधे योजनतक स्पर्शती हुई उसकी अर्ध प्रदक्षिणा देकर, पश्चिम समुद्रमें गई है। ऐसे हरित् और हरिकान्ता नामक दो नदियाँ हरि नामका धारक जो मध्यम भोगभूमिका क्षेत्र है उसमें जाननी चाहिये । अब शीता नामा नदी नील पर्वतके केसरी नामा ह्रदसे दक्षिणको आकर, उत्तरकुरु नामक उत्कृष्ट भोगभूमिक्षेत्रके बीच में होकर, मेरुके पास जाकर, गजदंत पर्वतको भेदकर और आधे योजन पर्यन्त प्रदक्षिणासे मेरुको छोड़कर, पूर्व भद्रशालवन और पूर्व विदेहके मध्यमें होकर, पूर्व समुद्रको गई है। इसी प्रकार शीतोदा नामा नदी निषधपर्वतपर विद्यमान जो तिगिंछह्रद है, वहाँसे उत्तरको आकर, देवकुरु संज्ञक उत्तम भोगभूमि क्षेत्रके बीचमेंसे जाकर मेरुके पास गजदन्तपर्वतको भेदकर और आधे योजन प्रदक्षिणासे मेरुको छोड़कर, पश्चिम भद्रशालवनके और पश्चिमविदेहके मध्यमें गमन करके, पश्चिम समुद्रको गई है। ऐसे शीता और शीतोदा नामक नदियोंका युगल विदेहनामक कर्मभूमिके क्षेत्रमें जानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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