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________________ धर्म-देशना कदन्द कन्यवनरकवायदईयायययययययययकककककककचन्तनकककककककककककककककवन्यको ब्याज का इकरार किया हो, उसी प्रकार त्याग करने पर ही रात्रि-भोजम विरति का वास्तविक लाभ मिलता है । जो मूर्ख मनुष्य दिन को भोजन नहीं कर रात को खाते। है, वे रत्न का त्याग कर के कांच ग्रहण करते हैं। रात्रि-भोजन करने से मनुष्य, पर-भव में उल्ल, कौआ, बिल्ली, गिद्ध, सांभर, मृग, भंडशूर, सर्प, बिच्छु और गीधा अथवा छिप-- कलीपने बनता है । जो धर्मात्मा मनुष्य सदा के लिए रात्रि भोजन का त्याग कर देते हैं, वे अपने आयुष्य का आधा भाग उपवास रूप तंव में बिताते हैं । रात्रि-भोजन के त्याग में जो गुण रहे हैं, वे सद्गति ही उत्पन्न करते हैं । ऐसे गुणों की गणना करने की शक्ति किस में है। इसके सिवाय चलित-रस वाली मिठाई, बहुत दिनों का आचार-जिसमें फूलन: अदि से जीवों की उत्पत्ति हो जाय, पानी का बरर्फ आकाश से गिरा हुआ हीम (बरफ): अदि भी अर्भक्ष्य हैं । इनका त्याम करना चाहिये। अभक्ष्य वस्तु के त्याग से आत्मा भारी क.म-बन्धन से वच श्रावक का खान-पान अमर्यादित नहीं हो । रसनेन्द्रिय को त्यागपूर्वक वश में रखने से आत्मा का हित होता है । भगवान् का धर्मोपदेश सुन कर सर्वप्रथम वरदत्त नरेश संसार से विरक्त हुए और भगवान् से सर्वविरति रूप निम्र अ-प्रव्रज्या अंगीकार की और उनके साथ दो हजार क्षत्रियों ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की। श्रीकृष्ण ने भगवान् से पूछा--"भगवान् यों तो हम सभी आपके अनुरागी हैं, . किंतु राजमती का आपके प्रति अत्यधिक अनुराग क्यों हैं ? क्या रहस्य है इस उत्कटं : अनुराग का ?" भगवन् ने राजमती के साथ धन और धनवती से लगा कर अपने पूर्व-जन्मों के आठ भवों का सम्बन्ध बताया, जिसे सुन कर समवसरण में उपस्थित तीन राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। वे तीनों भी भगवान् के धन के भव में धनदेव और धनदत्त नाम के दो भाई थे, वे और अपराजित के भव में विमलबोध नाम का मन्त्री था। वे तीनों भी स्वामी के साथ भव-भ्रमण करते हुए इस भव में राजा हुए थे। जातिस्मरण । से पूर्व वृत्तांत जान कर उन्हें भी वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे भी दीक्षित हो गए। उन सभी सद्य-दीक्षितों में से वरदत्त आदि ग्यारह मुनियों को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप त्रिपदी का ज्ञान दिया और वे भगवान् के गणधर' हुए। उन गणवरों ने द्वादशांगी की रचना की। उसी समय यक्षिणी आदि आदि अनेक राजकुमारियाँ भी प्रवजित हुई। उन सभीः में यक्षिणी को प्रभु ने साध्वियों में प्रतिनी पद प्रदान किया। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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