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________________ ४८४ तीर्थकर चरित्र ककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक्षक इतना कह कर हिडिम्ब अपनी बहिन पर झपटने लगा, तब भीमसेन ने कहा-- " राक्षस ! अरे तू अपनी निरपराधिनी बहिन को ही खाना चाहता है ? मेरे देखते तेरी यह नीचता नहीं चल सकती। यदि तू नहीं मानेगा, तो आज तेरा अस्तित्व ही नहीं रह सकेगा। चल हट यहाँ से और लड़ने का विचार हो, तो सावधान हो कर आ। मैं तुझसे लड़ने को तत्पर हूँ।" ___ भीमसेन के शब्दों ने राक्षस की क्रेधाग्नि को भड़का कर दावानल जितनी विकरालबना दिया। बह बहिन की उपेक्षा कर के भीमसेन पर झपटा । भीमसेन ने एक बड़े वृक्ष को जड़ से उखाड़ कर प्रहार किया। प्रथम प्रहार में ही राक्षस भूशायी हो कर मच्छित हो गया। थोड़ी ही देर में वह सचेत हआ और एक भयंकर गर्जना की। उसकी गर्जना से युधिष्ठिरादि सभी जाग्रत हो गए। कुन्ती ने अपने निकट खड़ी हिडिम्बा से पूछा-" भद्रे ! तुम कौन हो और यह लड़ने वाला कौन है ?" हिडिम्बा ने अपना वृत्तांत कह सुनाया। इतने में हिडिम्ब के वज्र-प्रहार से भीमसेन मूच्छित हो गया। भीम को मूच्छित देख कर युधिष्ठिर ने अर्जुन को भीम की सहायता करने का आदेश दिया । अर्जुन सन्नद्ध हो कर पहुँचे, उतने में तो भीम सावधान हो कर राक्षस से भीड़ गया। दोनों .. वीरों का मल्लयुद्ध और घात-प्रतिघात चलने लगा। कभी किसी का पलड़ा भारी लगता, तो कभी किसी का । अन्त में भीमसेन ने राक्षस का गला पकड़ कर मरोड़ दिया और वह मर गया। . भीमसेन की विजय होते ही युधिष्ठिरजी ने प्रसन्न हो कर भाई को छाती से · लगाया और उसके धूलभरे शरीर को अपने वस्त्र से पोंछने लगे। शेष तीनों भाई, वस्त्र से हवा कर ठण्डक पहुंचाने लगे। कुन्तीदेवी अपने विजयी पुत्र का माथा चूमने लगी। इस विपत्ति के समय भी द्रौपदी की प्रसन्नता का पार नहीं था। वह अपने वीर-शिरोमणि पति पर मन ही मन न्यौछावर हो रही थी। . भीमसेन पर किये गये आक्रमण से हिडिम्बा अपने भाई पर छैद हो गई थी। वह मन ही मन भीमसेन की विजय और भाई की पराजय की कामना कर रही थी और , हिडिम्ब के धराशायी होने पर वह प्रसन्न भी हुई थी। किंतु जब उसने भाई को मरा हुआ देखा, तो उसका भ्रातृ-स्नेह उमड़ा और वह रुदन करने लगी । कुन्तीदेवी ने उसे सान्तवना दे कर अपने पास बिठाई । भीमसेन ने भी हिडिम्बा को समवेदना के साथ सान्तवना दी और आत्मीयता प्रकट की। रात्रि व्यतीत होने के बाद यह प्रवासी दल आगे बढ़ा । हिडिम्बा ने कुन्ती और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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