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________________ द्रौपदी चरित्र x x नागश्री का भव संभाल करने पर उन्हें विश्वास हो गया कि तपस्वी का देहावसान हो गया है । उनके हृदय को आघात लगा और सहसा मुंह से निकल गया- "हा, हा, यह अकार्य हुआ ।' वे सँभले और तत्काल धर्मरुचि तपस्वी का परिनिर्वाण ( देहावसान ) कायोत्सर्ग किया । इसके बाद तपस्वीजी के पात्रादि ले कर वे आचार्यश्री के समीप आये और गमनागमन का प्रतिक्रमण कर निवेदन किया- 'भगवन् ! तपस्वी संत का देहावसान हो गया है । यह उनके पात्रादि हैं ।" " तपस्वी का देहावसान कैसे हो गया ? क्या निमित्त हुआ मृत्यु का ?" आचार्य ने पूर्वगत उपयोग लगाया और कारण जान लिया। उन्होंने साधु-साध्वियों को सम्बोध कर कहा - Jain Education International "आर्यो ! मेरा अंतेवासी प्रकृति से भद्र विनीत तपस्वी धर्मरुचि अनगार, नागश्री ब्राह्मणी के दिये हुए, विष के समान तुम्बे के शाक को परठने गये थे। उन्होंने एक बूंद भूमि पर डाल कर देखा और जीवों की विराधना बचाने के लिए उन्होंने वह सारा शाक खुद खा लिया । इससे उन्हें महान् वेदना हुई और वे संथारा करके कालधर्म को प्राप्त हुए। वे सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव हुए हैं। वहाँ तेतीस सागर की आयु पूर्ण कर के वे महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगें और निग्रंथ प्रव्रज्या स्वीकार कर मुक्त होंगे , " हे आर्यों ! उस पापिनी नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार है, जिसने तपस्वी संत को विष के समान आहार दे कर मार डाला। वह धिक्कार के योग्य है । अधन्या, अपुण्या एवं कड़वी निंबोली के समान दुत्कार के योग्य है ।" नागश्री को तपस्वीघातिनी जान कर श्रमणनिग्रंथ क्षुब्ध हुए । वे नगर में आ कर स्थान-स्थान पर बहुत-से लोगों में, नागश्री के तपस्वी-घातक दुष्कर्म को प्रकट करते हुए उसे धिक्कारने लगे । साधओं की बात सुन कर लोग परस्पर नागश्री की निन्दा करते हुए धिक्कार देने लगे । यह बात सोमदेव आदि ब्राह्मण बन्धुओं ने भी सुनी । वे अत्यन्त कुपित हुए और नागश्री के पास आकर उसे धिक्कारी, अपमानित की और मार-पीट कर घर से निकाल दिया। घर से निकाली हुई नागश्री, नगरजनों द्वारा निन्दित, तिरस्कृत और प्रताड़ित होती हुई इधर-उधर भटकने लगी । सुख के सिंहासन से गिर कर दुःख के गड्ढे में पड़ी हुई नागश्री अनेक प्रकार की व्याधियों की पात्र हो गई। शीत-ताप, भूख-प्यास तथा प्रतिकूल संयोग और पापप्रकृति के तीव्र उदय से कई प्रकार के महारोग उसके शरीर में उत्पन्न हुए । वह महान् संक्लिष्ट भावों में रौद्र ध्यान में, लीन रहती हुई मर कर छठी नरक में उत्पन्न हुई । वहाँ उसकी आयु बाईस सागरोपम की थी । वहाँ के महान् ४०७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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