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________________ तीर्थकर चरित्र सागरचन्द्र के पिता ने जब यह वृत्तांत सुना, तो दंग रह गया। उसने पुत्र को एकान्त में ले जा कर कहा कि-"पुत्र ! तूने अशोकदत्त से मित्रता की, यह अच्छा नहीं हुआ। यद्यपि अशोकदत्त भी कुलीन है, किन्तु हृदय का मैला दिखाई देता है। ऐसे व्यक्ति के साथ की हुई मित्रता दुःखदायक होती है । तू स्वयं बुद्धिमान् है । मैं तुझे क्या समझाऊँ, और अपन तो व्यापारी हैं। अपने को धन के समान वीरता भी गुप्त ही रखनी चाहिए और साहस का काम नहीं करना चाहिए।" सागरचन्द्र ने सोचा-'पिताजी मोहवश साहस के कामों से रोकते हैं।' उसने कहा-“मैं कहाँ साहस करने जाता हूँ। वह तो अचानक प्रसंग उपस्थित हो गया था और सोचने का समय ही नहीं रहा था। जैसी भावना जगी, वैसी प्रवृत्ति की और अशोकदत्त की बुराई मुझ में तो नहीं आ जायगी, मैं स्वयं सावधान रहँगा । इतने दिनों की मित्रता एकदम तोड़ देना उचित भी नहीं रहेगा । फिर जैसी आपश्री की आज्ञा।" सेठ ने केवल सावधान रहने का संकेत कर दिया । कालान्तर में सागरचंद्र का विवाह प्रियदर्शना के साथ हो गया। दोनों का जीवन अत्यन्त स्नेहमय बीतने लगा। अशोकदत्त भी प्रियदर्शना पर मोहित हो गया था। उसकी वासना दुर्दम्य हो गई। वह मोहान्ध हो कर प्रियदर्शना की ताक में रहने लगा । एक बार जब सागरचंद्र बाहर गया हआ था, अशोकदत्त प्रियदर्शना के पास आया और कहने लगा “प्रियदर्शना ! तुम्हें एक गुप्त बात कहना है।" "ऐसी क्या बात है-भाई !" "तुम्हारा पति सागरचंद्र, धनदत्त सेठ की पत्नी के साथ रहता है । मैने अपनी आँखों से देखा है।" "होगा, किसी काम से मिलना हुआ होगा। इसमें विचार करने जैसी कौन-सौ बात है ?" प्रियदर्शना ! उसका आशय मैं जानता हूँ। वह उस पर मोहित है और उससे उसका गुप्त सम्बन्ध है।" प्रियदर्शना विचार में पड़ गई । उसको चिंतित देख कर अशोकदत्त ने कहा,-- "प्रिये ! घबराने की आवश्यकता नहीं । यदि वह तुम्हें नहीं चाहता, तो मैं तुझे अपनी हृदयेश्वरी बनाने को तय्यार हूँ।" । ये शब्द सुनते ही प्रियदर्शना चौंकी। अब तक वह उसे पति के मित्र और अपने हितैषी देवर के समान मानती थी । किंतु उसकी मनोभावना का पता लगते ही वह गरजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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