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________________ भ. मल्लिनाथजी--अरहनक श्रावक की दहता ३९१ देख लिया है । वास्तव में आप दृढ़-धर्मी हैं। मैं आपसे अपने अपराध की अमा मांगता हूँ।" इस प्रकार प्रशंसा कर और दो जोड़ी दिव्य कुण्ड दे कर देव चला गया । कालान्तर में व्यापारियों का वह सार्थ, मिथिला आया और कुंभराजा को दिव्य कुण्डल सहित मूल्यवान् नजराना (भट किया। मिथिलेश ने वे दिव्य कुण्डल, राजकुमारी मल्लि को उसी समय दिये और अरहन्न कादि व्यापारियों का सम्मान किया, तथा उनके व्यापार पर का कर माफ कर दिया। वहाँ बेचने योग्य वस्तुएँ बेच कर और नया माल खरीद कर वे व्यापारी लौट कर चम्पानगरी में आये और "चन्द्रछाया" नरेश को दूसरे दिव्य कुण्डल की जोड़ी सहित नजराना किया। अंगदेशाधिपति ने अरहन्नकादि से पूछा--"आप कई देशों में घुम आये । कहीं कोई ऐसी वस्तु देखी कि जो अन्यत्र नहीं हो और आश्चर्यकारी हो ?" अरहन्नक ने कहा-"स्वामिन् ! हमने मिथिला नगरी में राजकुमारी मल्लि को देखा है। वास्तव में वह त्रिलोक-सुन्दरी है । वैसा रूप, विश्व की किसी भी सुन्दरी में नहीं है।" व्यापारियों के निमित्त से चन्द्रछाया का मोह जाग्रत हुआ और उसने भी अपना दूत, मल्लिकमारी की याचना के लिए मिथिला भेजा। (३) भगवान मल्लिनाथ के पूर्वभव के मित्र महात्मा पूरणजी, जयन्त नाम के अनुत्तर विमान मे च्यव कर, कुणाल देश की सावत्थी नगरी में, 'रूपी' नाम के कुणालाधिपति नरेश हुए । उनके 'सुबाहु ' नाम की सुन्दरी नवयौवना पुत्री थी। एक बार राजकुमारी सुबाहु के चातुर्मासिक स्नान का उत्सव मनाया गया । शहर के मध्य में एक भव्य पुष्प-मंडप तय्यार किया और उसके मध्य में एक पुष्प निमित श्रीदामगण्ड' (गेंद या मुद्गर) रखा गया। उत्सव बड़े ही आडम्बरपूर्वक मनाया गया। राजा बड़े भारी जुलूस से, अन्तःपुर व राजकुमारी के साथ, उस भव्य मण्डप में आया और राजकुमारी का स्नानोत्सव किया। राजा की दृष्टि में वह उत्सव बहुत ही महत्वपूर्ण एवं अपूर्व था उसने अपने वर्षधर = अन्तःपुर रक्षक से पूछा--'देवप्रिय ! तुम मेरी आज्ञा से अनेक देशों और राजधानियों में गये और अनेक उत्सव देखे, किन्तु जैसा स्नानोत्सव यहाँ हो रहा है, वैसा अन्यत्र कहीं तुम्हारे देखने में आया ?' वर्षधर ने कहा-.-" स्वामिन् ! एक बार में आपकी आज्ञा से मिथिला गया था। वहाँ विदेह राजकुमारी मल्लि का स्नानोत्सव मैने देखा था। वह उत्सव इतना भव्य और उत्कृष्ट था कि जिसके आगे आपका यह उत्सव बिलकुल फीका और निस्तेज लगता है।" बस, राजा के स्नेह को जाग्रत करने का निमित्त मिल गया। उसने भी अपना दूत मिथिलाधिपति के पास, मल्लि की याचना के लिए भेजा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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