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________________ तीर्थंकर चरित्र वीरमती से वीणा बजाने का आग्रह किया । वीरभद्र, वीणा वादन में प्रवीण था। उसने गन्धर्वराज के समान सारणी से श्रुतिओं को स्फुट करने वाले स्वरों, तथा धातु और व्यंजन को स्पष्ट करने वाले तान उत्पन्न किये । वाद्य के सभी प्रकार के उत्तम वादन से उत्पन्न राग-रस में राजकुमारी अनंगसुन्दरी और अन्य सुनने वाली महिलाएँ स्तब्ध रह गई और परम संतोष को प्राप्त हुई । उनके हर्ष का उभार आ गया। राजकुमारी ने सोचा-- "ऐसी परम निपुण सखी, भाग्य से ही मिलती है । यह मानवी नहीं देवी है । इसका सदा का साथ, मेरे जीवन को आनन्दित एवं सफल कर देगा।" वीरभद्र ने इसी प्रकार अपनी अन्य कलाओं का भी परिचय दे कर राजकुमारी के हृदय को अपनी ओर पूर्ण रूप से आकर्षित कर लिया। वीरभद्र को भी अनुभव हो गया। कि अनंगसुन्दरी उस पर पूर्ण रूप से मुग्ध है। उसने एक दिन सेठ से कहा--"पिताश्री ! मैं रोज बहिन के साथ राजकुमारी के पास स्त्री-वेश में, उसकी बहिन बन कर जाता रहा हैं। किन्तु इससे आपको किसी प्रकार का भय नहीं रखना चाहिए । मैं ऐसा ही कार्य करूँगा कि जिससे आपकी प्रतिष्ठा बढ़े। यदि राजा अपनी कन्या का लग्न मेरे साथ करने के विषय में आपसे कहें, तो पहले तो आप मना कर दें, किन्तु जब राजा अति आग्रह करे, तो स्वीकार कर लें।" सेठ ने वीरभद्र की बात स्वीकार कर ली। उसे वीरभद्र पर विश्वास था। उसकी योग्यता पर सेठ भी प्रसन्न थे। नगरभर में फैली हुई वीरभद्र की प्रशंसा, राजा के कानों पर पहुँची। उसकी प्रशंसा सुन कर वह भी आकर्षित हुआ । मन्त्रियों और अधिकारियों से राजा वीरभद्र का विशेष परिचय करना चाहने लगा। इधर अवसर देख कर एक दिन वीरभद्र ने पूछा-- "महाभागे ! आप सुयोग्य एवं भाग्यशालिनी हैं । आपके लिए उत्तमोत्तम भोग्य. सामग्री प्रस्तुत है । फिर आप भोग से विमुख क्यों है ?" --"सखी ! मैं भोग से विमुख नहीं हूँ। किन्तु कोई योग्य वर मिले, तभी तो जीवन सुखमय हो सकता है, अन्यथा सारा जीवन दुःख, क्लेश एवं कटुता से गुजरता है। जिस प्रकार रत्न अकेला रहे वह अच्छा है, परन्तु काँच के साथ लगा कर अंगूठी में रहना उचित नहीं है। इसी प्रकार युवती को एकाकी जीवन बीताना अच्छा, पर कुल हीन, कलाहीन और दुर्गुणी वर के साथ रह कर विडंबित होना अच्छा नहीं है । यदि योग्य वर मिले, तो फिर कहना ही क्या है ?" --"हां, यह तो ठीक बात है । किन्तु आपको कैसा वर चाहिए । वर में कितनी योग्यता चाहती है आप ? ' वीरभद्र ने पूछा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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