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________________ भ० शांतिनाथजी-पूर्वभव वर्णन ३२५ थी। एक बार वह उपवास का पारणा करने के लिए बैठी थी। उसके मन में सुपात्रदान की भावना जगी। उसने द्वार की ओर देखा। सुयोग से तपस्वी मुनिराज का द्वार में प्रवेश हुआ। चित्त, वित्त और पात्र की शुद्धता से वहाँ पंच दिव्य की वृष्टि हुई । अद्भुत चमत्कार को देख कर बलदेव और वासुदेव वहाँ आये और सुपात्रदान की महिमा सुन कर विस्मित हुए। उनके मन में राजकुमारी सुमति के प्रति आदर भाव उत्पन्न हुआ । वे सोचने लगे किहमारी ऐसी उत्तम बालिका के योग्य पति कौन होगा ? उन्होंने अपने इहानन्द मन्त्री से परामर्श कर के स्वयंवर का आयोजन किया और सभी राजाओं को सूचना भेज कर आमन्त्रित किया। निश्चित दिन स्वयंवर मंडप में सभी राजा और राजकुमार बड़े ठाठ से आ कर बैठ गए। निश्चित समय पर राजकुमारी सुमति सुसज्जित हो कर अपनी सखियों और सेविकाओं के साथ मंडप में आई। उसके हाथ में वरमाला थी। वह आगे बढ़ ही रही थी कि इतने में उस सभा के मध्य में एक देव विमान आया। उसमें से एक देवी निकली और एक सिंहासन पर बैठ गई। राजकुमारी और सारी सभा इस दृश्य को देख कर चकित रह गई । इतने में देवी ने राजकुमारी से कहा ___ "मुग्धे ! समझ ! यह क्या कर रही है ? तू अपने पूर्व भव का स्मरण कर । पुष्करवर द्वीपार्द्ध के पूर्व-भरत क्षेत्र में श्रीनन्दन नाम का नगर था। महाराज महेन्द्र उस नगर के स्वामी थे। अनन्तमति उनकी महारानी थी। उनकी कुक्षि से हम दोनों युगलपुत्रियें उत्पन्न हुई । मेरा नाम कनकश्री और तेरा नाम धनश्री था । अपन दोनों साथ ही बढ़ी, पढ़ी और यौवन-वय को प्राप्त हुई । हम दोनों ने एकबार वन में नन्दन मुनि के दर्शन किये। उनसे धर्मोपदेश सुन कर श्रावक व्रत ग्रहण किये और उनकी आराधना करने लगी। एक बार अपन अशोक वन में गई और वहाँ वनक्रीड़ा करने लगी। इतने में एक विद्याधर युवक वहाँ आया और अपना हरण कर के उसके नगर में ले गया। किन्तु उसकी सुशीला पत्नी ने हमारी रक्षा की। वहाँ से हम दोनों एक अटवी में आई और नवकारमन्त्र का स्मरण कर के अनशन व्रत लिया । वहाँ का आयु पूर्ण कर के मैं तो सौधर्म स्वर्ग के अधिपति की अग्रमहिषी हुई और तू कुबेर लोकपाल की मुख्य देवी हुई । तू वहाँ का आयुष्य पूर्ण कर के यहाँ जन्मी और अब संसार के प्रपञ्च में पड़ रही है। अपन दोनों ने देवलोक में निश्चय किया था कि जो देवलोक से च्यव कर पहले मनुष्य-भव प्राप्त करे, उसे दूसरी देवी देवलोक से आ कर प्रतिबोध दे । छोड़ इस फन्दे को और दीक्षा ग्रहण कर के मानव जैसे दुर्लभ भव को सफल कर ले।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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