SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० तीर्थकर चरित्र कुण्डों, वापिकाओं, नदियों, वृक्षों, लताओं, मण्डपों, वनखण्डों, उपवनों, ग्रामों, नगरों और राजधानी से सुशोभित है । उसमें सूसीमा नाम की नगरी थी, जो पृथ्वी के लिए तिलक समान भूषणरूप थी और देव-नगरी के समान अद्वितीय लगती थी। विमलवाहन राजा उस नगरी का स्वामी था। वह राजा के उत्तम गुणों से युक्त था। शूर-वीर एवं पराक्रमी विमल-वाहन से चारों ओर के अन्य राजा झुके हुए रहते थे। वह सज्जनों का पालन और महात्माओं की भक्ति करने में भी तत्पर रहता था। दुर्वासना और अधम विचार उसके मन में स्थान ही नहीं पा सकते थे । एक दिन उसे बैठे-बैठे यों ही विचार हुआ.." धिक्कार है इस संसार रूपी समुद्र को कि जिसमें विविध प्रकार की योनी रूप लाखों भँवर पड़ रहे हैं और उन भँवरों में पड़ कर अनन्त जीव दुःखी हो रहे हैं । इन्द्रजाल के समान इस संसार में कभी उत्पत्ति और कभी विनाश, कभी सुख तो कभी दुःख, कभी हर्ष तो कभी शोक और कभी उत्थान तो कभी पतन से सभी जीव मोहित हो रहे हैं। यौवन, पताका के समान चञ्चल है। जीवन, कुशाग्र बिन्दुवत् नाशवान है । मनुष्य-जन्म की प्राप्ति युग-शमिला प्रवेश तुल्य महा कठिन है। जिस प्रकार अर्द्ध रज्जु प्रमाण महाविशाल स्वयंभूरमण समुद्र की एक दिशा के किनारे, गाडी का जुआ डाला हो और उसके दूसरी ओर उसकी शमिला डाली हो, उन दोनों का तैरते हए एक दूसरे के निकट आना और शमिला का अपने-आप जूए में पिरो जाना जितना कठिन है, उससे भी अधिक कठिन है-एक बार हारा हुआ मनुष्य-जन्म पुनः प्राप्त करना । ऐसे महत्वपूर्ण नरभव को पा कर भी जो धर्म की आराधना नहीं कर के विषयकषाय में नष्ट कर देता है, वह अधोगति को प्राप्त हो कर दुःख-परम्परा बढ़ा लेता है।" वैराग्य का निमित्त राजा इस प्रकार सोच रहा था। वह चाहता था--यदि किसी महात्मा का पदार्पण हो जाय, तो अपना जन्म सफल करूँ। पुण्यवान् की इच्छा पूरी होने में विशेष विलम्ब नहीं होता । आचार्य श्री अरिदमन मुनिराज का पदार्पण हो गया। राजा ने सुना कि नगर के बाहर उद्यान में आचार्य महाराज पधार गये हैं, तो उसके हर्ष का पार नहीं रहा । वह तत्काल वन्दना करने पहुंचा। वे आत्मारामी महामुनि, ब्रह्मचर्य के तेज से देदिप्यमान्, संयम और तप के महाकवच से सुरक्षित और अनेक गुणों के भण्डार थे । उनके शिष्यों में से कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy