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________________ ८८ तीर्थकर चरित्र वह मेरा भाई है । मैं उसके दुविनय की उपेक्षा करता हूँ। राज्य तो प्राप्त हो सकता है, किंतु ऐसा भाई मिलना अशक्य है । मेरे ९८ भाई चले गये, अब यह एक ही रहा है । इसके साथ लड़ाई करने की मेरी इच्छा नहीं है । अब मैं इस एकमात्र भाई का मनमुटाव सहन नहीं कर सकूँगा।" उन्होंने मन्त्रियों की ओर देख कर पूछा; - " बाला, तुम क्या कहना चाहते हो ?" बाहुबली के अविनय और सम्राट की क्षमा से उत्तेजित हो कर सेनापति सुषेन बोला "भगवान् आदिनाथ के पुत्र महाराजाधिराज क्षमा करें, यह तो उचित है, किंतु करुणा के पात्र पर क्षमा हो, वही उचित है । जो मनुष्य, जिस राजा के गाँव में बसता है, वह भी उस राजा के अधीन होता है, तब बाहुबलीजी तो हमारे एक देश का उपभोग कर रहे हैं, उन्हें तो अधीन होना ही चाहिए। जब वे ज्येष्ठ-बन्धु के नाते और वचनमात्र से भी अधीनता स्वीकार नहीं करते और अपने बल का घमण्ड रख कर अवज्ञा करते हैं, तब वे क्षमा के पात्र नहीं रहते--महाराज !" " सम्राट ! वह शत्रु भी अच्छा है, जो अपने प्रताप में वृद्धि करता है। किन्तु वह भाई तो बुरा ही है जो अपने भाई के प्रताप एवं प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाता है। राजा, महाराजा और सम्राट, अपने भण्डार, सेना, पुत्र मित्र और शरीर से भी अपने प्रताप को अधिक महत्व देते हैं। अपने तेज की रक्षा के लिए वे अपने प्राणों की भी बाजी लगा देते हैं, क्योंकि प्रताप ही उनका जीवन होता है। आपको राज्य की कोई कमी नहीं थी, फिर छह-खण्ड साधने का कष्ट क्यों उठाया ? केवल प्रताप के लिए ही । चक्र-रत्न आने पर भी यदि आप खण्ड साधना नहीं करते, तो आपके प्रताप में क्षति आती । वास्तव में वह सर्वोत्तम अस्त्र-रत्न, किसी ऐसे ही भाग्यशाली को प्राप्त होता है, जो महान् प्रतापी हो, सत्वशाली हो और उसका प्राप्त होना सार्थक बना सकता हो।" "स्वामिन् ! जिस सती का शील एक बार खण्डित हो जाय, तो वह असती ही मानी जाती है, उसी प्रकार जिसका एक बार प्रभाव खण्डित हो जाता है, तो वह खण्डित ही रहता है ।" ___“गृहस्थों में पिता की सम्पत्ति में भाइयों का हिस्सा होता है। उन भाइयों में कोई तेजस्वी होता है, तो दूसरे भाई उसके तेज का आदर और रक्षा करते हैं, उपेक्षा नहीं करते, तब आप जैसे छह-खण्ड के विजेता का अपने घर में ही विजय नहीं हो, तो यह समुद्र तिरने पर भी एक छोटे खड्डे में डूब मरने के समान होगा--देव !" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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