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________________ २५ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७ शब्दार्थ-जा-जो, करणाईए-अपूर्वकरण के प्रारम्भ में, ठिईस्थिति, करणंते-करण के अन्त में, तीइ-उसका, होइ-होता है, संखंसोसंख्यातवाँ भाग, अणि अट्टिकरणमओ-इसके बाद अनिवृत्तिकरण, मुत्तावलिसंठियं-मुक्तावली के आकार रूप, कुणइ-करता है। गाथार्थ-अपूर्वकरण के प्रारम्भ में जो स्थिति की सत्ता थी, उसका संख्यातवाँ भाग करण के अन्त में शेष रहता है। उसके बाद मुक्तावली के आकार रूप अनिवृत्तिकरण को करता है। विशेषार्थ-अपूर्वकरण के प्रथम समय में जितनी स्थिति की सत्ता थी, उसमें से हजारों स्थितिघातों के द्वारा क्रमशः क्षीण होते-होते अपूर्वकरण के चरम समय में संख्यातवें भाग जितनी ही अवशिष्ट रहती है। इस प्रकार से अपूर्वकरण में स्थितिघात आदि चार पदार्थ प्रवर्तमान होते हैं और इनके पश्चात् अनिवृत्तिकरण प्रारम्भ होता है । जो पहले छोटा मोती उसके बाद क्रमशः उत्तरोत्तर पूर्व की अपेक्षा बड़ा इस तरह मुक्ताहार के आकार का होता है। इसका कारण यह है कि अनिवृत्तिकरण में तिर्यग्मुखी विशुद्धि नहीं होती है, मात्र ऊर्ध्वमुखी विशुद्धि ही होती है । जिससे अनिवृत्तिकरण के किसी भी समय में एक साथ च हुए सभी जीवों के एक समान परिणाम होते हैं और पूर्व-पूर्व समय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के समय में अनन्तगुण विशुद्ध होते हैं । इसी कारण यह करण मुक्तावली के आकार वाला बताया है । तथा एवमनियट्रीकरणे ठितिघायाईणि होति चउरो वि । संखेजसे सेसे पढमठिई अंतरं च भवे ॥१७॥ शब्दार्थ-एवमनियट्टीकरणे--इसी प्रकार से अनिवृत्तिकरण में, ठितिवायाईणि-स्थितिघातादि, होंति --होते हैं, चउरो वि-चारों ही, संखेज्जसे-संख्यातवां भाग, सेसे-शेष रहने पर, पढमठिई-प्रथमस्थिति, अंतरं-अंतरकरण, च-और, भवे-होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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