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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०१ अनुभाग-प्रदेश देशोपशमना अणुभाग पएसाणं सुभाण जा पुव्व मिच्छ इयराणं । उक्कोसियरं अभविय एगेंदि देससमणाए ॥१०॥ शब्दार्थ-अणुभाग पएसागं-अनुभाग और प्रदेश की, सुभाण- शुभ प्रकृतियों की, जा पुव्य-अपूर्वकरण तक, मिच्छ-मिथ्यादृ ष्टि के, इयराणंइतर-अशुभ प्रकृतियों की, उक्कोतियर-उत्कृष्ट, इतर, अभविय- अभव्य, एगेंदि-एकेन्द्रिय, देससमणाए-देशोपशमना के ।। गाथार्थ-अनुभाग और प्रदेश की देशोपशमना संक्रम के तुल्य है। परन्तु शुभप्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभाग और प्रदेश देशोपशमना अपूर्वकरण तक और इतर-अशुभ प्रकृतियों की मिथ्या दृष्टि के होती है तथा जघन्यदेशोपशमना के अभव्ययोग्य जघन्य स्थिति में वर्तमान एकेन्द्रिय स्वामी हैं । विशेषार्थ-अनुभागदेशोपशमना और प्रदेशदेशोपशमना अनुक्रम से अनुभागसंक्रम और प्रदेशसंक्रम के तुल्य है । उसमें से पहले अनुभागदेशोपशमना का विचार करते हैं जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से अनुभागदेशोपशमना दो प्रकार की है। उसमें जो जीव उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम का स्वामी है, वही जीव उत्कृष्ट अनुभागदेशोपशमना का भी स्वामी है। लेकिन शुभप्रकृतियों की उत्कृष्ट देशोपशमना का स्वामी सम्यग्दृष्टि है । मात्र सातावेदनीय, उच्चगोत्र और यशःकीर्ति के उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामी अपूर्वकरणगुणस्थान से आगे के जीव भी हैं, किन्तु उत्कृष्ट अनुभागदेशोपशमना के स्वामी अपूर्वकरण तक के ही जीव हैं। यानि किसी भी शुभप्रकृति की उत्कृष्ट अनुभागदेशोपशमना के स्वामी अपूर्वकरण तक में वर्तमान सम्यग्दृष्टि जीव ही हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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