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________________ ६४ पंचसंग्रह : ८ संज्ञा सम्बन्धी विशेष पुरिसित्थिविग्ध अच्चक्खुचक्खुसम्माण इगिदेठाणो वा । मणपज्जवसाणं वच्चासो सेस बंधसमा ॥४१॥ शब्दार्थ-पुरिसित्थि-पुरुषवेद, स्त्रीवेद, विग्घ---अंतराय, अच्चक्खुचक्खुसम्माण -अचक्षुदर्शनावरण, चक्षुदर्शनावरण, सम्यक्त्वमोहनीय की, इगिदुठागो-एकस्थानक, द्विस्थानक, वा-और, मणपज्वपु साणं-मनपर्याय ज्ञानावरण, नपुसंकवेद, वच्चासो-विपरीतता है, सेस-शेष की, बंधसमाबंध के समान । गाथार्थ-पुरुषवेद, स्त्रीवेद, अंतराय, अचक्षुदर्शनावरण, चक्षुवर्शनावरण और सम्यक्त्वमोहनीय के एक और द्वि स्थानक रस की उदीरणा होती है तथा मनपर्यायज्ञानावरण और सपुंसकवेद के सम्बन्ध में विपरीतता है शेष प्रकृतियों को बंध के समान उदीरणा होती है। विशेषार्थ-गाथा में अनुभाग-उदीरणा के प्रसंग में संज्ञा से सम्बन्धित विशेषता का संकेत किया है पुरुषषेद, स्त्रीवेद, अंतरायपंचक, अचक्षुकदर्शनावरण, चक्षुदर्शनावरण, और सम्यक्त्वमोहनीय की अनुभाग-उदीरणा एक स्थानक और द्विस्थानक रस की जानना चाहिये। जिसका विशेषता से साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है पुरुषवेद, अंतरायपंचक, अचक्षुदर्शनावरण, और चक्षुदर्शनावरण का बंधापेक्षा अनुभाग का विचार करें तो एक द्वि, त्रि, चतु स्थानक इस तरह चार प्रकार का रस बंधता है, किन्तु इन प्रकृतियों का रस की उदारणापेक्षा विचार किया जाये तो जघन्य से एकस्थानक और मंद द्विस्थानक रस की उदीरणा होती है और उत्कृष्ट से सर्वोत्कृष्ट द्विस्थानक रस की ही उदीरणा होती है परन्तु त्रि या चतु स्थानक रस की उदीरणा नहीं होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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