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________________ उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३० तियों की संक्रमावलिका बीतने के बाद उदय होने पर उदयावलिका से ऊपर की स्थिति की उदीरणा की जा सकती है। जिससे उसकी तीन आवलिका न्यून उत्कृष्टस्थिति उ दीरणायोग्य होती है और अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों का (उनमें उत्कृष्ट स्थिति का संक्रम होने के बाद) अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उदय होता है, जिससे उनकी अन्तमुहूर्तन्यून उत्कृष्ट स्थिति उदीरणायोग्य होती है। तथा आहारकसप्तक की अप्रमत्त तद्योग्य उत्कृष्ट संक्लेश द्वारा उत्कृष्टस्थिति बांधता है। उसमें उसी समय स्वमूल प्रकृति से अभिन्न किसी अन्य उत्तर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति वाला दलिक संक्रमित हो, जिसस संक्रम द्वारा आहारकद्विक की उत्कृष्ट अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्टस्थिति की सत्ता होती है। उस आहारकद्विक को बांधने के बाद अन्तमुहूर्त ठहरकर आहारकशरीर करना प्रारम्भ करे, तो उसको आरम्भ करता जीव लब्धि को करने में उत्सुकता वाला होने से अवश्य प्रमादयुक्त होता है । यानि आहारकशरीर उत्पन्न करने पर आहारकसप्तक की अन्तमुहूर्त न्यून उत्कृष्टस्थिति उदीरणायोग्य होती है। तथा आहारकद्विक बांधने के बाद अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर ही उसका स्फुरण होता है । स्फुरण यानि उदय और उदय हो तभी उदीरणा होती है । इसीलिए आहारकसप्तक की अन्तमुहूर्तन्यून उदीरणा बताई है। आहारकसप्तक का अप्रमत्त बंध करता है । वहाँ चाहे जैसे संक्लिष्ट परिणाम हों, परन्तु अन्तःकोडाकोडी से अधिक बंध नहीं होता है एवं वहाँ किसी भी प्रकृति की अन्तःकोडाकोडी से अधिक सत्ता नहीं होती है। इतना अवश्य है कि आहारक में संक्रमित होने वाली अन्य प्रकृतियों की स्थितिसत्ता आहारक की स्थितिसत्ता से अधिक होती है। इसलिए यह कहा है कि संक्रमित होने के बाद आहारक की सत्ता उत्कृष्ट अन्तःकोडाकोडी होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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