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________________ उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३० अयोग्य स्थिति अद्धाच्छेद कहलाती है। अतः सम्यक्त्वमोहनीय का अन्तमुहूर्त, मिश्रमोहनीय का दो अन्तर्मुहूर्त। और उदयबधोत्कृष्टा प्रकृतियों का दो आवलिका अद्धाच्छेद है। उस-उस प्रकृति के उदय वाले उतनी-उतनी स्थिति की उदीरणा के स्वामी हैं। तथा मणुयाणुपुव्विआहारदेवदुगसुहुम वियलतिअगाण । आयावस्स य परिवडणमंतमुहुहीणमुक्कोसा ॥३०॥ शब्दार्थ-मणुयाणुपुन्वि-मनुष्यानुपूर्वी, आहारदेवदुग- आहारकद्विक, देवद्विक, सुहमवियलतिअगाणं - सूक्ष्मत्रिक विकलत्रिक की, आयावस्सआतप की, य-और, परिवडणं-पतन हो, अंतमुहुहीणमुक्कोसा-- अन्तमुहूर्तन्यून उत्कृष्ट स्थिति। ___गायार्थ -मनुष्यानुपूर्वी, आहारकद्विक (सप्तक), देवद्विक, सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक और आतप की उत्कृष्ट स्थिति का बंध करके पतन हो तब उन प्रकृतियों की अन्तमुहूर्त न्यून उत्कृष्टस्थिति उदीरणायोग्य होती है। विशेषार्थ-मनुष्यानुपूर्वी, आहारकसप्तक, देवगति, देवानुपूर्वी रूप देवद्विक, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण रूप सूक्ष्मत्रिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति रूप विकलत्रिक तथा आतपनाम इन सत्रह प्रकृतियों की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसको बांधकर, उस बंध से पतन हो तब अर्थात् उनका बंध कर लेने के बाद अन्तर्मुहूर्तन्यून उत्कृष्ट स्थिति उदीरणायोग्य होती है। जिसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार हैकोई एक जीव तथाप्रकार के परिणामविशेष से नरकानपूर्वी की १ उदयावलिका से ऊपर की स्थिति की उदीरणा होती है, जिससे उदया वलिका भी अद्धाच्छेद में ही मानी जाती है । अतएव अन्तर्मुहूर्त से ऊपर उदयावलिका को भी अद्धाच्छेद कहना चाहिये था परन्तु यहाँ उदयावलिका को अन्तर्मुहूर्त में ही समाविष्ट कर दिये जाने से पृथक् निर्देश नहीं किया है। २ अद्धोच्छेद को सुगमतो से समझने के लिए प्रारूप परिशिष्ट में देखिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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