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________________ पंचसंग्रह : ८ विशेषार्थ- अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थान वालों, 'उत्तरतणू' अर्थात् वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी तथा असंख्यात वर्षायुष्क युगलिकों को छोड़कर शेष सभी जीव शेष निद्राओं.. निद्रा-निद्रा, प्रचला. प्रचला, स्त्यानद्धि की उदीरणा के स्वामी हैं । तथा जिस कषाय का जिस गुणस्थान में बन्धविच्छेद होता है. उस गुणस्थान पर्यन्त वर्तमान जीव उस-उस कषाय के उदीरक हैं, अन्य नहीं। जैसे कि अनन्तानुबन्धिकषाय के सासादनगुणस्थान तक में वर्तमान, अप्रत्याख्यानावरणकषाय के अविरतसम्यग्दष्टि तक में वर्तमान, प्रत्याख्यानावरणकषाय के देशविरत गुणस्थान तक में वर्तमान तथा लोभ वर्जित संज्वलनकषाय के नौवें अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थान में जहाँ तक बन्ध होता है, वहाँ तक वर्तमान एवं संज्वलन लोभ के अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थान पर्यन्त वर्तमान जीव उदीरक हैं और सूक्ष्म लोभकिट्टियों की उदीरणा दसवे गुणस्थान में वर्तमान आत्माएँ करती हैं। तथा हासरईसायाणं अंतमुहुत्त तु आइमं देवा । इयराणं नेरइया उड्ढं परियत्तणविहीए ॥२१॥ शब्दार्थ - हासरईसायाणं- हास्य, रति और सातावेदनीय के, अंतमुहुत्तअन्तर्मुहूर्त, तु-और, आइमं-- पहले, देवा-- देव, इयराण ---- इतरों के, नेरइया -नारक, उड्ढं-- इसके बाद, परियत्तणविहीए-परावर्तन के क्रम से ।। __गाथार्थ-पहले अन्तमुहूर्त पर्यन्त देव हास्य, रति और सातावेदनीय के और नारक इतरों-अरति, शोक एवं असाता के उदीरक होते हैं। इसके बाद परावर्तन के क्रम से उदीरक होते हैं। विशेषार्थ-उत्पत्ति के प्रथम समय से लेकर अन्तमुहूर्त पर्यन्त सभी देव हास्य, रति और सातावेदनीय के ही अवश्य उदीरक होते १ यहाँ वैक्रिय शरीरी पद से देव, नारक तथा वैक्रिय शरीर की जिन्होंने विकुर्वणा की है ऐसे मनुष्य, तिर्यंचों का ग्रहण करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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