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________________ उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११ उस समय नहीं होती है, इसलिये उसका निषेध किया है। बादर लोभ की उदीरणा तो नौवें अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थान तक होती है, अतः बादर लोभ की उदीरणा के स्वामी नौवें गुणस्थान तक के जीव हैं। केवल किट्टीकृत लोभ की दसवें गुणस्थान में वर्तमान जीव ही उदीरणा करते हैं। क्योंकि उसका उदय दसवें गुणस्थान में ही होता है । तथा पंचिदिय पज्जत्ता नरतिरिय चउरंसउसभपुव्वाणं । चउरंसमेव देवा उत्तरतणुभोगभूमा य ॥११॥ शब्दार्थ –पंचिदियपज्जत्ता-पंचेन्द्रिय पर्याप्त, नरतिरिय -मनुष्य, तिर्यंच, चउरमउसभपुव्वाणं-समचतुरस्र आदि संस्थानों और वज्रऋषभनाराच आदि संहननों की, चउरंसमेव-समचतुरस्रसंस्थान के ही, देवा --देव, उत्तरतगुभोगभूमा--उत्तर शरीर वाले और भोगभूमिज, य-- और। गाथार्थ-समचतुरस्र आदि संस्थानों और वज्रऋषभनाराच आदि संहननों की उदीरणा पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्य और तिर्यंच करते हैं । देव, उत्तरशरीर वाले और भोगभूमिज समचतुरस्रसंस्थान के ही उदीरक हैं। विशेषार्थ-शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त पंवेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों के समचतुरस्र आदि छह संस्थानों और वज्रऋषभनाराच आदि छह संहननों की उदीरणा होती है। अर्थात् मनुष्य और तिर्यंच संस्थानों एवं संहननों की उदीरणा के स्वामी हैं। लेकिन उदयप्राप्त कर्म की उदीरणा होती है, ऐसा सिद्धान्त होने से जब जिस संहनन और जिस संस्थान का उदय हो तभी उसकी उदीरणा होती है, अन्य की नहीं, यह समझना चाहिये ।1 तथा१ यद्यपि यहाँ शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को संहनन और संस्थान का उदीरक कहा है । परन्तु तनुस्थ उत्पत्तिस्थान में उत्पन्न हुए के शरीरनामकर्म के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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