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________________ उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७३ १०३ ___जो सम्यगमिथ्या दृष्टि अनन्तर समय में सम्यक्त्व प्राप्त करेगा, उस सम्यग मिथ्यादृष्टि के मिश्रमोहनीय के जघन्य अनुभाग को उदीरणा होती है। क्योंकि मिश्रदृष्टि वाला तथाप्रकार की विशुद्धि के अभाव में सम्यक्त्व और संयम एक साथ प्राप्त नहीं करता, परन्तु सम्यक्त्व को ही प्राप्त कर सकता है। इसीलिए गाथा में 'सम्माभिः मुहोमीसे' पद दिया है। जिसका अर्थ यह है कि सम्यक्त्व के सन्मुख हुआ मिश्रदृष्टि मिश्रमोहनीय के जघन्य अनुभाग का उदीरक है। तथा__अपनी-अपनी आयू की जघन्य स्थिति में वर्तमान अर्थात जघन्य आयु वाले चारों गति के जीव अपनी-अपनी आयु के जघन्य अनुभाग की उदीरणा करते हैं । इनमें नरकायु के सिवाय तीन आयु का जघन्य स्थितिबंध संक्लेशवशात् होता है और जघन्य अनुभाग बंध भी उसी समय होता है। क्योंकि नरकायु के बिना तीन आयु पुण्य प्रकृतियां हैं, उनकी जघन्य स्थिति और साथ ही जघन्य रस बंध भी संक्लेश से होता है, जिससे इन तीन आयु की जघन्य अनुभाग-उदीरणा के अधिकारी जघन्य आयु वाले हैं और नरकायु का जघन्य स्थिति बंध विशुद्धि वशात् होता है और उसका जघन्य रसबंध भी उसी समय ही होता है । क्योंकि नरकायु पाप प्रकृति है । इसलिए उसका जघन्य स्थितिबंध और साथ में जघन्य रसबंध भी विशुद्धि के योग में होता है । जिससे नरकायु के जघन्य रस की उदीरणा का अधिकारी भी उसकी जघन्यस्थिति वाला जीव है । तात्पर्य यह हुआ कि नरकायु के बिना शेष तीन आयु के जघन्य-अनुभाग का उदीरक उस उस आयु की जघन्य स्थिति में वर्तमान अति संक्लिष्ट परिणामी और नरकायु के जघन्य अनुभाग का उदोरक अपनी जघन्य स्थिति में वर्तमान अति विशुद्ध परिणाम वाला जीव है। तथा पोग्ग लविवागियाणं भवाइसमये विसेसमुरलस्स । . सुहुमापज्जो वाऊ बादरपज्जत्त वेउव्वे ।।७३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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