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________________ उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५७ ८५ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा आहारक शरीरस्थ संयत के होती है । जो अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही प्रवर्तित होने से सादि-सांत है । उसके अतिरिक्त शेष सब अनुभाग उदीरणा अनुत्कृष्ट है और वह आहारकशरीर का उपसंहार होते समय होती है, अतः सादि है । उस स्थान को जिसने प्राप्त नहीं किया उसकी अपेक्षा अनादि, अभव्य के ध्रुव तथा भव्य के अध्रुव है । तेजस्सप्तक, स्थिर, शुभ, निर्माण, अगुरुलघु, श्वेत, पीत, रक्त वर्ण, सुरभिगंध, मधुर, आम्ल, कषाय रस, उष्ण, स्निग्ध स्पर्श रूप शुभ ध्रुवोदया बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार की है और वह इस प्रकार - इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट रस की उदीरणा सयोगिकेवली के चरम समय में होती है, जिससे वह सादि-सांत है। उसके सिवाय अन्य शेष सब अनुत्कृष्ट है । उसके सर्वदा होते रहने से अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्रुव है । तथा -- अण्णा असुभधुवोदयाण तिविहा भवे तिवीसाए । सेसा सव्वे अधुवोदयाणं तु ॥ ५७ ॥ साईअधुवा शब्दार्थ - अजहण्णा - अजघन्य, असुभधुवोदयाण - अशुभ ध्रुवोदया प्रकृतियों की, तिविहा- तीन प्रकार की, भवे― होती है, तिवसाए - तेईस, साइअधुवा - सादि और अध्रुव, सेसा - शेष की, सब्वे - सब, अधुवोदयाणंअध्रु वोदय प्रकृतियों की, तु — और । गाथार्थ - अशुभ ध्र ुवोदया तेईस प्रकृतियों की अजघन्य अनुभाग- उदीरणा तीन प्रकार की है । शेष विकल्प तथा अध्रुवोदया प्रकृतियों के समस्त विकल्प सादि अध्रुव हैं । विशेषार्थ - ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, कृष्ण, नील वर्ण, दुरभिगंध, तिक्त, कटुक रस, रूक्ष, शीत स्पर्श, अस्थिर, अशुभ और अत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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