SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचसंग्रह : ८ शब्दार्थ-उत्तरतणुपरिणामे-उत्तर शरीर का परिणाम होने पर, अहिय -अधिक-विशेष, अहोन्तावि-नहीं होने पर भी, होति-होती हैं, सुसरजयासुस्वर सहित, मिउलहु मृदु, लघु, ५ रघाउज्जोय-पराघात, उद्योत, खगइ--- (प्रशस्त) विहायोगति, चउरंस- समचतुरस्त्र संस्थान; पत्तेया-प्रत्येक नाम । गाथार्थ---सुस्वर सहित मृदु, लघु, पराघात उद्योत (प्रशस्त) विहायोगति, समचतुरस्रसंस्थान, प्रत्येक नाम रूप प्रकृतियां पहले अधिक- विशेष- आश्रयी न होने पर भी उत्तर शरीर का परिणाम हो तब अवश्य उदीर णा में प्राप्त होती हैं । विशेषार्थ-सुस्वर सहित मृदु, लघु, स्पर्श, पराघात, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, समचतुरस्रसंस्थान और प्रत्येक नाम रूप प्रकृतियाँ यद्यपि विशेष-आश्रयी पहले नहीं होती, तथापि जब उत्तरवैक्रिय या आहारक शरीर किया जाता है तब अवश्य उदीरणा में प्राप्त होती हैं । तात्पर्य यह है कि अपने मूल शरीर से अन्य वैक्रिय या आहारक शरीर करने से पहले उपर्युक्त प्रकृतियों की उदीरणा अवश्य हो, यह नहीं है, इनकी विरोधिनी प्रकृतियों की भी उदीरणा या उदय होता है। क्योंकि चाहे किसी संस्थान या विहायोगति आदि के उदय वाला उत्तर शरीर कर सकता है, परन्तु जब उत्तर वैक्रिय या आहारक शरीर करे तब वह शरीर जब तक रहे तब तक उपर्युक्त प्रकृतियों की ही उदय पूर्वक उदीरणा होती है। यानि यहाँ गुण-अगुण का प्राधान्य नहीं है। परन्तु उत्तरशरीर का ही प्राधान्य है। इसीलिये उपयुक्त प्रकृतियों की वैक्रिय या आहारक शरीर करे उस समय होने वाली उदीरणा गुणागुण-परिणामकृत या भवकृत नहीं है, परन्तु शरीरपरिणामकृत' है, यह समझना चाहिये । तथा १ गाथा में शरीरपरिणामकृत भेद का संकेत नहीं है । लेकिन कर्मप्रकृति उदीरणाकरण गाथा ५१ में शरीर का परिणाम उपर्युक्त प्रकृतियों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy