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________________ १५ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६,७ सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की उद्वलना होने पर मिथ्यात्वमोहनीय पतद्ग्रह रूप नहीं रहती है। प्रथम स्थिति की समय न्यून दो और तीन आवलिका शेष रहे तब क्रम से पुरुषवेद और संज्वलन की पतद्ग्रहता नहीं होती है। विशेषार्थ--इन दो गाथाओं में से पहली में सामान्य पतद्ग्रह संबन्धी और दूसरी में श्रेणि संबन्धी पतद्ग्रह विषयक अपवाद का निर्देश किया है। इनमें से पहले सामान्य अपवादों को स्पष्ट करते क्षायिक सम्यक्त्व उपार्जित करते हुए मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय होने के बाद मिश्रमोहनीय पतद्ग्रह नहीं होती है-'मिच्छे खविए मीसस्स नत्थि ।' अर्थात् मिश्रमोहनीय में किसी भी अन्य प्रकृति के दलिक संक्रमित नहीं होते हैं । क्योंकि मिश्रमोहनीय में मात्र मिथ्यात्व मोहनीय के ही दलिक संक्रमित होते हैं, अन्य किसी भी प्रकृति के संक्रमित नहीं होते हैं । उसका (मिथ्यात्वमोहनीय का) तो क्षय हुआ कि जिससे मिश्रमोहनीय की पतद्ग्रहता नष्ट हो गई। ___ 'उभए वि नत्थि सम्मस्स' अर्थात् मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय इन दोनों का क्षय होने के बाद सम्यक्त्वमोहनीय की भी पतद्ग्रहता नहीं रहती है। इसका कारण यह है कि सम्यक्त्वमोहनीय में मिथ्यात्व और मिश्रमोहनीय का ही संक्रम होता है और इन दोनों का तो क्षय हो गया है, जिससे अन्य दूसरी किसी भी प्रकृति का संक्रम असंभव होने से सम्यक्त्वमोहनीय भी पतद्ग्रह रूप नहीं रहती मिथ्यात्वगुणस्थान में सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की उद्वलना होने के बाद मिथ्यात्वमोहनीय पतद्ग्रह नहीं रहती है। वयोंकि पहले गुणस्थान में मिथ्यात्वमोहनीय में मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय का ही संक्रम होता है। किन्तु चारित्रमोहनीय की किसी भी प्रकृति का संक्रम नहीं होता है। इसका कारण यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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