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________________ पंचसंग्रह : ७ का क्षय करते हुए चरम संक्षोभकाल में उसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। विशेषार्थ-भोगभूमि में असंख्यात वर्षपर्यन्त स्त्रीवेद को बांधकर और अन्य प्रकृतियों के दलिकों के संक्रम द्वारा पूरित कर तथा वहाँ उतने ही वर्ष पर्यन्त जीवित रहकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितना काल जाये तब अकालमृत्यु द्वारा मरण प्राप्त करके दस हजार वर्ष प्रमाण देव की जघन्य स्थिति बांधकर देवरूप में उत्पन्न हो। इसका तात्पर्य यह है कि युगलिकभव में मात्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग जीवित रहकर और उतने काल में स्त्रीवेद को बार-बार बांधकर तथा अन्य प्रकृतियों के दलिकों के संक्रम द्वारा पुष्ट करके दस हजार वर्ष की जघन्य आयु बांधकर देवरूप से उत्पन्न हो और देव भव में भी स्त्रीवेद का बंध कर एवं पूर्ण कर अपनी आयु के अंत में मरण प्राप्त कर कोई भी वेदयुक्त मनुष्य हो, वहाँ मासपृथक्त्व अधिक आठ वर्ष की आयु बीतने के बाद क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हो और वहाँ स्त्रीवेद का क्षय करते हुए उसके चरम प्रक्षेपकाल में सर्वसंक्रम द्वारा संक्रमित करने पर स्त्रीवेद का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। ___ अब पुरुषवेद के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व का निर्देश करते हैं। वरिसवरित्थि पूरिय सम्मत्तमसंखवासियं लभिय । गन्तु मिच्छत्तमओ जहन्नदेवट्टिइं भोच्चा ॥६६॥ आगन्तु लहु पुरिसं संछुभमाणस्स पुरिसवेअस्स । १ इस पद से ऐसा प्रतीत होता है कि युगलिकों की अकाल मृत्यु संभव है । परन्तु सिद्धान्त से इसमें विरोध आता है। विद्वज्जन स्पष्ट करने की कृपा करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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