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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३ २०५ जाता है, उसे ही सर्वसंक्रम कहते हैं, इसीलिये यहाँ सर्वसंक्रम द्वारा यह कहा है। तमस्तमा नामक सातवीं नरकपृथ्वी में अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहे तब औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करके और उस सम्यक्त्व के काल में जितना शक्य हो, उतने दीर्घ अन्तर्मुहर्त पर्यन्त गुणसंक्रम द्वारा सम्यक्त्वमोहनीय को मिथ्यात्व एवं मिश्र मोहनीय के दल को संक्रमित करने के द्वारा पुष्ट करके सम्यक्त्व से पतित होकर मिथ्यात्व में जाये, वहाँ उसके-मिथ्यात्व के प्रथम समय में ही सम्यक्त्वमोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है। ___ अब अनन्तानुबंधि के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम के स्वामी का निर्देश करते हैं। अनन्तानुबंधिःउत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व भिन्नमुत्ते सेसे जोगकसाउक्कसाइं काऊण । संजोअणाविसंजोयगस्स संछोभाणाए सि ॥३॥ शब्दार्थ-भिन्नमुत्ते–अन्तर्मुहूर्त, सेसे-शेष, जोगकसाउक्कसाईयोग और कषाय को उत्कृष्ट, काऊण-करके, संजोअणाविसंजोयगस्सअनन्तानुबंधि के विसंयोजक के, संछोभणाए-संक्षोभ के समय, सिंइनकी। __ गाथार्थ-अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहे तब योग और कषाय को उत्कृष्ट करके (नरक में से निकलकर तिर्यच में आकर) अनन्तानुबंधि के विसंयोजक के चरम संक्षोभ-संक्रम के समय इनका (अनन्तानुबंधि कषायों का) उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। विशेषार्थ-सातवीं नरकपृथ्वी में वर्तमान गुणितकर्माश जीव अपनी जब अन्तर्मुहर्त आयु शेष रहे, तब उत्कृष्ट योगस्थानों और उत्कृष्ट कषायस्थानों को करके उत्कृष्ट योगस्यानों और उत्कृष्ट कषायोदयजन्य संक्लेशस्थानों को प्राप्त करके उस सातवीं नरकपृथ्वी में से Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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