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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४५ १०७ गाथार्थ - अन्य प्रकृति का उदयावलिका में जो अंतिम प्रक्षेप होता है, उसे जघन्य स्थितिसंक्रम कहते हैं । उसका प्रमाण यह है । विशेषार्थ गाथा में जघन्य स्थितिसंक्रम का लक्षण बतलाकर विभिन्न प्रकृतियों के जघन्य स्थितिसंक्रम के प्रमाण का संकेत करने की सूचना दी है । जघन्य स्थितिसंक्रम का लक्षण इस प्रकार है - किसी विवक्षित प्रकृति की स्थिति का पतद्ग्रहप्रकृति की उदयावलिका में जो अंतिम प्रक्षेप - संक्रम होता है उसे तथा अपनी ही प्रकृति सम्बन्धी उदयावलिका में अर्थात् अपनी ही उदयावलिका में जो अंतिम संक्रम होता है, उसे जघन्य स्थितिसंक्रम कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि क्षय करने पर अंत में जितनी स्थिति का अन्यप्रकृतिनयनसंक्रम' द्वारा - संक्रमकरण द्वारा पर प्रकृति की उदयावलिका में संक्रम होता है वह अथवा अपवर्तना-संक्रम द्वारा अपनी ही उदयावलिका में जो संक्रम होता है, वह जघन्य स्थितिसंक्रम कहलाता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि उदयावलिका से बाहर के भाग में जो संक्रम होता है, वह तो नहीं किन्तु अंत में जितनी स्थिति का उदयावलिका में प्रक्षेप होता है वह जघन्य स्थितिसंक्रम है । यह जघन्य स्थितिसंक्रम का लक्षण निद्राद्विक को ९. यद्यपि अन्यप्रकृतिनयनसंक्रम द्वारा जितने स्थानों का संक्रम होता है, उसमें कुछ परिवर्तन नहीं होता है अर्थात् बांधते समय जिस काल में जिस प्रकार का फल देना नियत हुआ हो, संक्रम होने के बाद उस काल में जिसमें संक्रम हुआ उसके अनुरूप ही प्रकृति फल देती है परन्तु अंत में जितनी जघन्य स्थिति का संक्रम होता है वह स्थिति संकुचित होकर उदयावलिका में संक्रमित होती है । अर्थात् उदयावलिका के काल में फल दे, वैसी हो जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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