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________________ दर्द संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६ विशेषलक्षण संक्रम के सामान्य लक्षण का बाध किये सिवाय प्रवर्तित होता है, ऐसा समझना चाहिये । किन्तु सामान्यलक्षण के अपवाद रूप प्रवर्तित होता है ऐसा नहीं समझना चाहिये । जिससे सामान्यलक्षण मूल कर्मप्रकृतियों का परस्परसंक्रम का प्रतिषेध किया होने से यहाँस्थिति में भी मूलकर्म की स्थिति का अन्यप्रकृतिनयनसंक्रम प्रवर्तित नहीं होता है । परन्तु उद्वर्तना और अपवर्तना ये दोनों ही प्रवर्तित होते हैं और उत्तरप्रकृतियों में तीनों ही प्रवर्तित होते हैं । इस प्रकार से भेद और विशेषलक्षण का प्रतिपादन करके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम और जघन्य स्थितिसंक्रम का ज्ञान करने के लिये प्रकृतियों का वर्गीकरण करते हैं । प्रकृतियों का वर्गीकरण जासि बंधनिमित्तो उवकोसो बंध मूलपगईणं । ता बंधुक्कोसाओ सेसा पुण संकमुवकोसा ॥३६॥ शब्दार्थ - जासि - जिनका, बंधनिमित्तो—बंध के निमित्त से, उक्कोसोउत्कृष्ट, बंध-बंध, मूलपगईणं - मूलप्रकृतियों के, ता – वे, बंधुक्कोसाओबंधोत्कृष्टा, सेसा - शेष, पुण-पुनः, संकमुक्कोसा - संक्रमोत्कृष्टा । गाथार्थ - जिन उत्तर प्रकृतियों का मूल प्रकृतियों के बंध के निमित्त से उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, वे प्रकृतियां बंधोत्कृष्टा और शेष प्रकृतियां संक्रमोत्कृष्टा कहलाती हैं । विशेषार्थ — स्थितिसंक्रम का प्रमाण बतलाने के लिये उत्तर प्रकृतियों का वर्गीकरण किया है-मूल कर्मप्रकृतियों का जितना उत्कृष्ट स्थितिबंध कहा है, उतना ही उत्कृष्ट स्थितिबंध जिन उत्तर कृतियों का बंधनिमित्तों से होता है, अर्थात् बंधकाल में उतना ही ध हो सकता है, वे प्रकृतियां बंधोत्कृष्टा कहलाती हैं। उन प्रकृतियों नाम इस प्रकार हैं- ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, अंतरायपंचक, आयुचतुष्टय, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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