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________________ ७८ पंचसंग्रह : ७ लिये पूर्व में तीस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में जैसा कहा गया है, वैसा ही उनतीस के पतद्ग्रहस्थान में भी समझ लेना चाहिये। आठवें गुणस्थान के छठे भाग के बाद यश:कीर्ति रूप बंधती हुई एक प्रकृति के पतद्ग्रह में ये आठ संक्रमस्थान संक्रमित होते हैं-एक सौ दो, एक सौ एक, पंचानव, चौरानवै, नवासी, अठासी, वयासी और इक्यासी प्रकृतिक, जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है एक सौ तीन प्रकृति की सत्ता वाले के बध्यमान यशःकीति पतद्ग्रह होने से उसके बिना शेष एक सौ दो प्रकृतियां एक यशःकीर्ति में संक्रमित होती हैं। इसी प्रकार एक सौ दो की सत्ता वाले के एक सौ एक, छियानवै की सत्ता वाले के पंचानव और पंचानवै की सत्ता वाले के चौरानवै प्रकृतियां संक्रमित होती हैं । आठवें गुणस्थान के छठे भाग के बाद मात्र एक यश:कीर्तिनाम का ही बंध होता है, नामकर्म की अन्य किसी प्रकृति का बंध नहीं होता है और बध्यमान प्रकृति ही पतद्ग्रह होती है, इसलिये उसके सिवाय एक सौ दो आदि कर्मप्रकृतियां एक यशःकीर्ति में संक्रमित होती हैं । तथा एक सौ तीन प्रकृति की सत्ता वाले के क्षपकश्रेणि में नौवें गुणस्थान में नामकर्म की नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, पंचेन्द्रियजाति के सिवाय शेष जातिचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप और उद्योत इन तेरह प्रकृतियों का क्षय होने के बाद उनके सिवाय और यशःकीर्ति पतद्ग्रह होने से उसके अलावा नवासी कर्मप्रकृतियां यशःकीति में संक्रमित होती हैं। इसी तरह एक सौ दो की सत्ता वाले के तेरह प्रकृतियों का क्षय होने के बाद अठासी, छियानवै की सत्ता वाले के वयासी और पंचानवै की सत्ता वाले के नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय होने के बाद इक्यासी प्रकृतियां यशःकीति में संक्रमित होती हैं। __आठवें गुणस्थान के छठे भाग के बाद से अन्य कोई पतद्ग्रह नहीं होने से यशःकीर्ति का संक्रम नहीं होता है, इसलिये संक्रमित होने वाली प्रकृतियों में से उसे कम किया जाता है । तथा www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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