SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधनक रण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४, १५ ४७ वर्गणा हो । जघन्य वर्गणा की अपेक्षा उत्कृष्ट वर्गणा में विशेषाधिक यानि अनन्तवें भाग अधिक अर्थात् जघन्य वर्गणा में जितने परमाणु हों उनके अनन्तवें भाग प्रमाण परमाणु उत्कृष्ट वर्गणा में अधिक होते ___जीव द्वारा ग्रहण की जाने वाली वर्गणाओं में यह कार्मण वर्गणा अंतिम वर्गणा है । ज्ञानावरणादि आठ कर्म रूप में परिणमित करने के लिये जीव इन वर्गणाओं में से प्रति समय अनन्त-अनन्त वर्गणायें ग्रहण करता है। . इस प्रकार संसारी जीवों के ग्रहण योग्य औदारिक आदि कार्मण पर्यन्त आठ वर्गणायें हैं, जो अग्रहणप्रायोग्य वर्गणाओं से अन्तरित हैं । अर्थात् पहले अग्रहणयोग्य, तदनन्तर औदारिक ग्रहणयोग्य, तत्पश्चात् अग्रहणयोग्य फिर वैक्रियग्रहणयोग्य, इस प्रकार अग्रहण वर्गणा से अंतरित ग्रहण वर्गणायें हैं और उनमें अन्तिम कार्मण वर्गणा है। ऐसी अग्रहण और ग्रहण प्रायोग्य वर्गणायें अनन्त हैं—'अज्जोगंतरियाओ उ वग्गणाओ अणंताओ' । वर्गणाओं के उपर्युक्त स्वरूप कथन से यह ज्ञात हो जाता है कि अमुक प्रकार के परिमाण वाले स्कन्ध ही अमुक-अमुक शरीर रूप में परिणमित होते हैं और वह परिणमन कम-से-कम अमुक संख्या वाले और अधिक-से-अधिक अमुक संख्या वाले परमाणुओं से निर्मित स्कन्धों में ही होता है । कम से कम और अधिक से अधिक जिस संख्या वाले परमाणुओं से बने हुए स्कन्ध में वह परिणाम होता है, यदि उसकी जघन्य वर्गणा में से एक भी परमाणु घटे या उत्कृष्ट वर्गणा में एक भी परमाणु बढ़े तो उसका परिणाम बदल जाता है । ऐसा होने का कारण जीव एवं पुद्गलों का स्वभाव ही है। जितने-जितने परमाणु वाली वर्गणायें जिस-जिस शरीरादि के योग्य कही हैं, उतने-उतने परमाणु वाली वर्गणाओं को ग्रहण करके जीव उस-उस शरीरादि रूप में परिणमित कर सकता है।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy