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________________ पंचसंग्रह : ६ समय कालमान के पूर्व और उत्तरवर्ती सात समय काल मान वाले दोनों प्रत्येक असंख्यात-असंख्यात गुणे हैं, किन्तु स्वस्थान में परस्पर दोनों तुल्य हैं। इनकी अपेक्षा दोनों बाजुओं के छह समय काल मान वाले योगस्थान असंख्यातगुणे हैं और स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं। इनकी अपेक्षा उभय पाववर्तो पांच समय काल मान वाले योगस्थान असंख्यातगुणे हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं। उनकी अपेक्षा दोनों बाजुओं के चार समय काल मान वाले असंख्यातगुणे हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं। उनकी अपेक्षा तीन समय काल मान वाले योगस्थान असंख्यात गुणे हैं और उनसे दो समय काल मान वाले असंख्यात गुणे हैं। - इस प्रकार से योगस्थानों की अल्प-बहुत्वप्ररूपणा का स्वरूप जानना चाहिये, अब उन योगस्थानों में वर्तमान सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि जीवों के जघन्य और उत्कृष्ट योग के अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा करते हैं। जीवस्थानों में योग की अल्प-बहुत्व प्ररूपणा सुहुमेयराइयाणं जहन्नउक्कोस पज्जपज्जाणं । आसज्ज असंखगुणाणि होति इह जोगठाणाणि ॥१२॥ शब्दार्थ–सुहुमेयराइयाणं-सूक्ष्म और इतर (बादर) आदि के, जहन्नउक्कोस–जघन्य और उत्कृष्ट, पज्जपज्जाणं-पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के, आसज्ज-अपेक्षा, असंखगुणाणि-असंख्यातगुणे, होंतिहोते हैं, इह-यहाँ, जोगठाणाणि-योगस्थान ।। __ गाथार्थ—सूक्ष्म, बादर, अपर्याप्त और पर्याप्त एकेन्द्रियादि के जघन्य और उत्कृष्ट योगस्थान अनुक्रम से पूर्व की अपेक्षा असंख्यातगुणे होते हैं । सुगमता से समझने के लिये डमरूक की आकृति द्वारा इसका स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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