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________________ पंचसंग्रह : ६ अमुक अपवाद के सिवाय शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध से अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध अधिक होता है । अतएव शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध से अशुभ प्रकृतियों का जितना अधिक उत्कृष्ट स्थितिवंध होता है, वह सब अशुभ प्रकृतियों का शुद्ध स्थितिस्थान होता है तथा अशुभ प्रकृतियों का अभव्य प्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध से प्रायः शुभ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध अत्यल्प होता है, जिससे अशुभ प्रकृतियों के अभव्य प्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध से शुभ प्रकृतियों के नीचे के स्थितिस्थान शुद्ध होते हैं । २६८ प्रतिपक्ष दोनों प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति समान होने पर भी अमुक मर्यादा तक का दोनों प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध करने वाले जीव एक न हों किन्तु भिन्न स्वरूप वाले हों तो वे अर्थात् स्थितिस्थान आक्रांत नहीं भी होते किन्तु शुद्ध होते हैं । जैसे कि नरकद्विक और तिर्यंचद्विक की Data कोडाको सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति समान होने पर भी समयाधिक अठारह कोडाकोडी सागरोपम से बीस कोडाकोडा सागरोपम तक की नरकद्विककी उत्कृष्ट स्थिति मनुष्य, तियंच और तिर्यंचद्विक की देव और नारक ही बांधते हैं । इसी प्रकार समयाधिक अठारह कोडाकोडी सागरोपम से बीस कोडाकोडी सागरोपम तक की स्थावरनाम की उत्कृष्ट स्थिति मात्र ईशान तक के देव और त्रस नाम की ईशान तक के देवों को छोड़कर शेष चार गति के जीव बांधते हैं । अतएव वे भी सभी स्थितिस्थान शुद्ध होते हैं । सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध में असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण रसबंध के जो अध्यवसाय हैं वे सब और उनमें भी तीव्र शक्ति वाले कुछ नये अध्यवसाय समयोन उत्कृष्ट स्थितिबंध में भी होते हैं । समयोन उत्कृष्ट स्थितिबंध में जो अध्यवसाय होते हैं, वे सब और उनसे भी तीव्र शक्ति वाले कुछ नये अधिक अध्यवसाय दो समयोन उत्कृष्ट स्थितिबंध में भी होते हैं । दो समयन्यून उत्कृष्ट स्थितिबंध में जो अध्यवसाय हैं, वे सब और उनसे तीव्र शक्ति वाले कुछ नये
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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