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________________ २०४ पंचसंग्रह : ६ स्थिति से नीचे के पहले स्थितिस्थान में उत्कृष्ट रस अनन्तगुण कहना चाहिये, उससे साकारोपयोग संज्ञा वाले कंडक के नीचे के दूसरे स्थितिस्थान में जघन्य रस अनन्तगुण कहना चाहिये, उससे अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थिति के नीचे के द्वितीय स्थितिस्थान में उत्कृष्ट रस अनन्तगुण कहना चाहिये । इस प्रकार ऊपर एक स्थान में उत्कृष्ट और नीचे एक स्थान में जघन्य रस अनन्तगुण क्रम से वहाँ तक कहना चाहिये, यावत् जघन्य स्थिति प्राप्त हो–साता की जिस कम-से-कम स्थिति पर्यन्त अनुकृष्टि होती हो वह अन्तिम स्थिति प्राप्त हो । कंडक प्रमाण अन्तिम स्थितिस्थानों में उत्कृष्ट रस अभी अनुक्त है वह भी उत्तरोत्तर अंतिम जघन्य स्थितिस्थान पर्यन्त अनुक्रम से अनन्तगुण कहना चाहिये। __स्थिरादिषट्क और उच्चगोत्रादि पन्द्रह प्रकृतियों की तीव्रमंदता इसी प्रकार कहना चाहिये। ___अब नीचगोत्र और उपलक्षण से तिर्यंचद्विक तथा त्रसचतुष्क की भी तीव्रमंदता कहते हैं। नीचगोत्र आदि की तीव्र-मंदता - आदि और अंत में नीचगोत्र, तिर्यंचद्विक और त्रसचतुष्क कौ तीव्रमन्दता उपघात की तरह और मध्य में असाता की तरह समझना चाहिये-- 'अंतेसूवघायसमं मज्झे नीयस्ससायसमं ।' उक्त संक्षिप्त कथन का विस्तृत आशय इस प्रकार है सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाला अनिवृत्तिकरण के चरम समय में वर्तमान सातवीं नरकपृथ्वी के नारक को सर्व जघन्य स्थितिबंध होता है। उस समय जो सर्वजघन्य रसबंध होता है, वह अल्प उससे समयाधिक दूसरी स्थिति में अनन्तगुण, उससे समयाधिक तीसरी स्थिति में अनन्तगुण, इस प्रकार वहाँ तक कहना चाहिये, यावत् निर्वर्तन कंडक पूर्ण हो । उससे कंडक के अंतिम स्थितिस्थान से जघन्यस्थिति में उत्कृष्ट रस अनन्तगुण उससे निर्वर्तन कंडक की ऊपर की पहली स्थिति में
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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