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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६, ५० १२३ होते हैं। जिनके समुदाय को स्थान कहते हैं, अर्थात् अभव्य से अनन्तगुण और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धकों के होने पर एक रसस्थान होता है और यह पहला रसस्थान है- 'एयं पढमं ठाणं' । इसके अनन्तर इसी प्रकार से अन्यान्य रसस्थान होते हैं। जिनमें विवक्षित समय में ग्रहण की गई वर्गणाओं के रस का विचार किया जाता है। रसस्थान बनने की प्रक्रिया इस प्रकार है-समान रसाणु वाले परमाणुओं के समुदाय को वर्गणा कहते हैं और उत्तरोत्तर प्रवर्धमान रसाणु वाली वर्गणाओं का समूह स्पर्धक कहलाता है और एक काषायिक अध्यवसाय द्वारा ग्रहण किये गये परमाणुओं के रस स्पर्धक के समूह का प्रमाण रसस्थान कहलाता है। इस प्रकार से स्थान प्ररूपणा का तात्पर्य जानना चाहिये । अब कंडक प्ररूपणा का विचार करते हैं ‘एवमसंखेज्जलोगठाणाणं' अर्थात् इसी प्रकार असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थान होते हैं। इन प्रत्येक स्थान में अभव्य से अनन्तगुण और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण स्पर्धक होते हैं और एक से दूसरे स्पर्धक के बीच अन्तर सर्वजीवराशिसे अनन्तगुण रसाणुओं का होता है । अर्थात् पहले स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा के किसी भी परमाणु में सर्वजीवराशि से अनन्तगुण रसाणुओं को मिलाने पर जितने रसाणु होते हैं उतने रसाणु दूसरे स्पर्धक की पहली वर्गणा के किसी भी परमाणु में होते हैं । इसी प्रकार दूसरे स्पर्धक की अन्तिम व तीसरे स्पर्धक की पहली वर्गणा में समझना चाहिये एवं सर्व स्पर्धकों में भी इसी प्रकार जानना चाहिये। ___ सर्व रसस्थानों में यद्यपि अभव्यों से अनन्तगुण स्पर्धक होते हैं फिर भी प्रत्येक स्थान में समान नहीं होते हैं, परन्तु पूर्व-पूर्व स्थान से उत्तर-उत्तर स्थान में षट्स्थान के क्रम से वृद्धि होती है, उस वृद्धि का क्रम इस प्रकार जानना चाहिये
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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