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________________ पंचसंग्रह : ६ १. औदारिक-औदारिक बंधन योग्य । स्तोक , तेजस अनन्तगुण ., कार्मण , तेजस कार्मण २. वैक्रिय-वैक्रिय स्तोक तैजस अनन्तगुण , कार्मण तैजसकार्मण ३. आहारक-आहारक स्तोक तैजस अनन्तगुण , कार्मण , तैजसकार्मण ४. तेजस-तैजस तैजस-कार्मण कार्मण-कार्मण इस प्रकार से नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा का स्वरूप जानना चाहिये। अब प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा का विचार करते हैं। प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा–प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा के विचार के आठ अनुयोगद्वार हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैं-१. अविभाग प्ररूपणा, २. वर्गणा प्ररूपणा, ३. स्पर्धक प्ररूपणा, ४. अन्तर प्ररूपणा, ५. स्थान प्ररूपणा, ६. कंडक प्ररूपणा, ७. षट्स्थान प्ररूपणा और ८. वर्गणागत स्नेहाविभाग सकल समुदाय प्ररूपणा । इन द्वारों का वर्णन करने के पूर्व सर्वप्रथम प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक शब्द का अर्थ कहते हैं होई पओगो जोगो तद्वाणविवड्ढणाए जो उ रसो। ___ परिवड्ढेइ जीवे पओगफड्डे तयं बेति ॥३६॥ शब्दार्थ होई--होता है, पओगो-प्रयोग, जोगो-योग, तट्ठाणविवड्छणाए-उस स्थान (मोगस्थान) की वृद्धि से, जो-जो, उ-और, रसो
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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