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________________ ८४ पंचसंग्रह : ६ की पहली-पहली वर्गणा में संख्यातगुण स्नेहाणु होते हैं । तत्पश्चात् असंख्यात स्पर्धक पर्यन्त प्रत्येक की पहली-पहली वर्गणा में असंख्यातगुण और उसके बाद के अनन्त स्पर्धक पर्यन्त प्रत्येक की पहली-पहली वर्गणा में अनन्त गुण स्नेहाणु होते हैं, यह परंपरा वृद्धि पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा की अपेक्षा उसके बाद के किसी भी स्पर्धक की पहली वर्गणा में होती है, यह समझना चाहिये। इस प्रकार से वर्गणा, स्पर्धक और अंतर प्ररूपणाओं का आशय जानना चाहिये। अब वर्गणागत पुद्गलपरमाणुओं के स्नेहाविभाग के समुदाय की प्ररूपणा करते हैं। वर्गणागत पुद्गल-स्नेहाविभाग समुदाय प्ररूपणा वर्गणागत परमाणुओं के स्नेहाविभाग कुल मिलाकर कितने होते हैं ? तो वे इस प्रकार जानना चाहिये कि पहले शरीरस्थान के पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा में स्नेहाविभाग अल्प होते हैं, उसकी अपेक्षा दूसरे शरीरस्थान के प्रथम स्पर्धक की पहली वर्गणा में अनन्त गुणे स्नेहाणु होते हैं, उससे तीसरे शरीरस्थान के प्रथम स्पर्धक की पहली वर्गणा में अनन्त गुणे स्नेहाणु होते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर प्रत्येक शरीरस्थान की पहली वर्गणा में अनन्तगुण-अनन्तगुण स्नेहाविभाग समझना चाहिये। ___ इस प्रकार से वर्गणागत पुद्गल स्नेहाविभाग समुदाय की प्ररूपणा करने के पश्चात् क्रमप्राप्त स्थान व कंडक प्ररूपणा का कथन करते हैं। स्थान और कंडक प्ररूपणा पढमाउ अणंतेहिं सरीरठाण तु होई फड्डेहिं । तयणंतभागवुड्ढी कंडकमित्ता भवे ठाणा ॥३१॥ शब्दार्थ-पढमाउ-पहले (स्पर्धक) से लेकर, अणंतेहि-अनन्त, सरीरठाण-शरीरस्थान, तु-और, होइ---होता है, फड्डेहि-स्पर्धकों द्वारा,
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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