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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६ ७६ तस्साइल्ला—उसकी पहली, रूवुत्तरियाओ—एक रूप से अधिक, अण्णाओअन्य-अन्य। गाथार्थ-उन वर्गणाओं का समुदाय एक स्पर्धक होता है । अनन्त अन्तराल वाले वे स्पर्धक होते हैं । इस प्रकार बार-बार कहना चाहिये। जितनेवें स्पर्धक की पहली वर्गणा के स्नेहाणु की संख्या जानने की इच्छा हो उस संख्या के साथ पहले स्पर्धक की पहली वर्गणा के स्नेहाणु से गुणा करने पर जो आये वह उतनेवें स्पर्धक की पहली वर्गणा में स्नेहाणु की संख्या होती है। इस प्रकार एक-एक रूप से अधिक अनन्त वर्गणायें होती हैं। विशेषार्थ--अभव्यों से अनन्तगुण अथवा सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण वर्गणायें जब हो जाती हैं, तब उसके बाद अनुक्रम से एक-एक स्नेहाविभाग से बढ़ती हई वर्गणायें नहीं होती हैं। अतएव उन पूर्वोक्त वर्गणाओं के समूह का एक स्पर्धक होता है। अर्थात् उन अनन्त वर्गणाओं के समुदाय की स्पर्धक यह संज्ञा है। ___ इस प्रकार से स्पर्धक प्ररूपणा जानना चाहिये, और वे स्पर्धक अनन्त अन्तराल वाले हैं । अर्थात् संपूर्ण जीव राशि की अपेक्षा अनन्त गुण स्नेहाणु रूप अन्तराल वाले वे स्पर्धक होते हैं, किन्तु वर्गणाओं की तरह एकोत्तर वृद्धि रूप वाले नहीं होते हैं। जिनकी विशेषता के साथ विवरण इस प्रकार है प्रथम स्पर्धक की अंतिम वर्गणा से आगे एक स्नेहाविभाग से अधिक वाले कोई परमाणु नहीं हैं, दो स्नेहाणु अधिक वाले परमाणु नहीं हैं, इसी प्रकार तीन, चार, संख्यात, असंख्यात या अनन्त स्नेहाणु अधिक वाले परमाणु नहीं हैं । परन्तु सर्व जीवों से अनन्तगुण स्नेहाणु से अधिक वाले परमाणु होते हैं। समान स्नेहाणु वाले उनका जो समुदाय वह दूसरे स्पर्धक की पहली वर्गणा है। दूसरे स्पर्धक की उस पहली वर्गणा में पहले स्पर्धक की प्रथम वर्गणा में जितने स्नेहाणु हैं
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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