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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७५ ४६५ ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों का क्षीणमोहगुणस्थान के काल का संख्यातवां भाग शेष रहा और स्थितिघात एवं गुणश्रेणि बद हुई, उससे उनके वे संख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धक और शेष कि जहाँ स्थितिघातादि प्रवर्तित होते हैं, उस सम्पूर्ण स्थिति का एक स्पर्धक, इस प्रकार कुल एक अधिक संख्यातवें भाग के समय प्रमाण ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों के स्पर्धक होते हैं और निद्राद्विक में एक कम होता है। क्योंकि यह पहले कहा जा चुका है कि उदयवती प्रकृतियों की अपेक्षा अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धक एक कम ही होते हैं। इस प्रकार से अभी तक यह बताया है कि क्षीणमोहगुणस्थान के संख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धक हुए। अब यह स्पष्ट करते हैं कि वे स्पर्धक किस तरह से होते हैं क्षीणकषायगुणस्थान का संख्यातवां भाग जाये और एक भाग शेष रहे तब सत्तागत स्थिति को कम करके जो संख्यातवें भाग प्रमाण रही है उसे भी यथासम्भव उदय, उदीरणा के द्वारा क्रमशः क्षय होतेहोते वहाँ तक जानना चाहिये यावर एक स्थिति शेष रहे। जब वह एक स्थिति शेष रही तब उसमें क्षपितकर्माश किसी जीव के कम-सेकम जो प्रदेशसत्ता होती है, वह चरम समयाश्रित प्रथम प्रदेशसत्कर्मस्थान कहलाता हैणु । उसमें एक परमा का प्रक्षेप करने पर दूसरा यानि उस अन्तिम स्थान में वर्तमान एक अधिक परमाण की सत्ता वाले जीव की अपेक्षा दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान, दो अधिक परमाणु की सत्ता वाले जीव की अपेक्षा तीसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान । इस प्रकार एक एक परमाणु को बढ़ाते हुए निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिये यावत् गुणितकांश जीव के उस चरम स्थिति में वर्तमान सर्वोत्कृष्ट प्रदेश की सत्ता का अन्तिम प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है । यह अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थानों का पिंडरूप चरम स्थितिस्थान सम्बन्धी स्पर्धक हुआ। दो स्थिति शेष रहे तब उक्त प्रकार से दूसरा स्पर्धक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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