SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २२ ) 8-शतक बहच्चूणि आदि के मत से उपशम सम्यक्त्व में संज्ञी पर्याप्त एक और सप्ततिका चूर्णिकार आदि के मत से संजी-पर्याप्तअपर्याप्त इस प्रकार दो जीव-भेद होना बताया है । १०-कितनेक आचार्यों के मत से केवली भगवन्तों के मत्यादि चार ज्ञान नहीं, मात्र केवलज्ञान ही होता है जबकि कितने ही आचार्यों के मत से पाँचों ज्ञान होते हैं। ११-पुरुषवेद और स्त्रीवेद में पर्याप्त-अपर्याप्त असंज्ञी और संज्ञी पंचेन्द्रिय यह चार जीव-भेद कहे हैं, जबकि भगवती सूत्र आदि में असंज्ञी के दोनों जीवस्थानों में नपुसकवेद ही बताया है। १२-पंचसंग्रह व कर्मग्रन्थादिक में क्षपकश्रेणि में आतप और उद्योत का क्षय नौवें गुणस्थान में और अपर्याप्त तथा अप्रशस्तविहायोगति का चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में क्षय बताया है, जबकि आवश्यकचूर्णिकार नौवें गुणस्थान में अपर्याप्त तथा अप्रशस्तविहायोगति का और चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में आतपउद्योत का क्षय मानते हैं। १३-कितने ही आचार्य क्षपकणि में नौवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क इन आठ कषायों के बीच स्त्याद्धित्रिक आदि सोलह प्रकृतियों का और दूसरे कितने ही आचार्य स्त्यानद्धित्रिक आदि सोलह प्रकृतियों के बीच उक्त आठ कषायों का का क्षय मानते हैं। १४-ग्रन्थकार उपशम श्रेणि का आरम्भक अप्रमत्तसंयत को कहते हैं, जबकि अन्य आचार्य चौथे से सातवें गुणस्थान के जीव मानते हैं। १५- इस ग्रन्थ एवं अन्य कितने ही ग्रन्थों में अनन्तानुबंधि का उपशम करके भी उपशम श्रेणि करते हैं ऐसा कहा है, जबकि कितने ही दूसरे ग्रन्थों में अनन्तानुबंधि का क्षय करके ही उपशम श्रेणि करते हैं, ऐसा कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy